मशहूर शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी की आज 102वीं जयंती है। उन्हें कौन नही जानता। न जाने कितनी फ़िल्में हिट हुईं उनके लिखे शानदार नग़मों की वजह से। उनका असल नाम अब्दुल हई था, लेकिन उर्दू अदब की दुनिया में उन्होंने अपना तख़ल्लुस साहिर रखा था। साहिर के लफ़्ज़ी मायने होते हैं जादूगर और उनके लिखे गीत और ग़ज़ल इस बात के जीते जागते नमूने हैं कि वह वाक़ई लफ़्ज़ों के जादूगर थे।
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ऐसी ही साहिर की एक ख़ूबसूरत नज़्म के बारे में आज मैं आपको बताने जा रहा हूं,जो की काफ़ी मशहूर है। साहिर जितने बड़े शायर थे उतने ही बड़े आशिक़ मिजाज़ शख्स भी थे। यूं तो उनका नाम उस वक़्त की मशहूर कवियत्री और उनकी दोस्त अमृता प्रीतम से उनकी नज़दीकियों को लेकर काफ़ी चर्चा में रहा था, लेकिन उन्होंने ताउम्र शादी नहीं की। साहिर और अमृता ने भले ही अपने रिश्ते को कोई नाम नही दिया था, लेकिन दिल से वह दोनों एक थे।
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इसके साथ ही उस दौर की प्लेबैक गायिका सुधा मल्होत्रा के साथ भी साहिर के अफ़सानों के चर्चे ख़ासे आम थे। सुधा मल्होत्रा ने साहिर के लिखे कई गाने गाए थे, जिस वजह से उनकी पहचान सुधा से हुई थी। कहते हैं की गायिका सुधा मल्होत्रा से पहली ही मुलाक़ात में वह उन्हें अपना दिल दे बैठे थे, लेकिन ख़ुद सुधा मल्होत्रा बतातीं हैं कि साहिर का प्यार हमेशा एकतरफ़ा ही रहा, क्योंकि उनकी तरफ़ से कभी साहिर को कोई जवाब नहीं मिला था। कहते हैं की सुधा मल्होत्रा से नज़दीकियों की वजह से ही अमृता प्रीतम से उनका अलगाव हुआ था, लेकिन जब 1960 में सुधा मल्होत्रा ने शादी कर ली तो साहिर का यह अफ़साना भी अधूरा ही रह गया।
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अपने इश्क़ में नाक़ाम और ज़िन्दगी से मायूस होकर साहिर ने ख़ुद अपने ऊपर एक नज़्म लिखी, जिसे उन्होंने किसी फ़िल्म के लिए नहीं, बल्कि ख़ुद अपने लिए लिखी थी। कहते हैं कि यह नज़्म हक़ीक़त में उन्होंने सुधा मल्होत्रा के लिए ही लिखी थी।
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बी.आर.चोपड़ा की कई फिल्मों में काम करने के बाद साहिर और बी.आर.चोपड़ा में काफी अच्छी दोस्ती हो गई थी। एक दिन बी.आर.चोपड़ा, साहिर के घर पहुंचे। उस वक़्त वह फ़िल्म गुमराह बना रहे थे। तभी वह मेज़ पर रखी साहिर की डायरी पढ़ने लगे। उसमें लिखी हुई एक नज़्म उनको बहुत पसंद आई। बी.आर.चोपड़ा, साहिर से उस नज़्म को अपनी फ़िल्म गुमराह के लिए देने के लिए कहा। कहा जाता है कि यह वही नज़्म है जिसे साहिर ने सुधा मल्होत्रा से अपने नाक़ाम इश्क़ पर लिखी थी। साहिर ने वह नज़्म देने से फ़ौरन यह कहते हुए इनकार कर दिया कि यह नज़्म मेरी ज़िंदगी की आपबीती है, इसे मैंने अपने लिए लिखी है। मैंने इसको किसी को भी ना देने का फैसला किया है, लेकिन बी.आर.चोपड़ा कहां मानने वाले थे। उन्होंने यह कहते हुए उनसे दोबारा वह नज़्म मांगी की मेरी आने वाली फ़िल्म की एक सिचुएशन के लिए इससे अच्छी नज़्म कोई और नहीं हो सकती। उनके यूं बार-बार इसरार करने पर साहिर मान गए और उन्होंने वह नज़्म बी.आर.चोपड़ा को दे दी।
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बी.आर. चोपड़ा ने अपनी फ़िल्म गुमराह में उस नज़्म को इस्तेमाल किया। संगीतकार रवि ने जब उसको सुरों में ढाला और महेंद्र कपूर ने उसे अपनी ख़ूबसूरत आवाज़ दी तो वह नज़्म और ज़्यादा हसीन लगने लगी। जब गुमराह फ़िल्म रिलीज़ हुई तो साहिर की उस नज़्म को लोगों ने ख़ूब पसंद किया। आज भी लोग बड़े शौक से उस नज़्म को गुनगुनाते हैं और वह नज़्म थी, "चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों।" पूरी नज़्म को जब आप ग़ौर से सुनेगें तो पाएंगे की वाक़ई इसमें साहिर ने खुल के अपने दिल के जज़्बात को ज़ाहिर किया है, एक जगह तो वह साफ़ साफ़ कहते हैं कि,
'तआरुफ़ रोग हो जाए तो उसका भूलना बेहतर
तअल्लुक़ बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा
वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा
चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों।
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