बीते रविवार, यानी 26 जून को सिंगापुर का एक सबसे पुराना सिनेमाघर बंद हो गया। 1939 मे बना ‘द कैथे’ विरासत, प्रतिष्ठा और अपने वास्तुशिल्प के लिए ख्यात था। यह सिंगापुर का पहला वातानुकूलित हॉल ही नहीं, पहला वातानुकूलित सार्वजनिक स्थल भी था। संयोगवश इसके कुछ अंतिम में से एक शो ‘एवरीथिंग एवरीव्हेयर ऑल एट वन्स’ फिल्म का रहा जिसमें डेनियल कॉन और डेनियल स्कीनर्ट का शानदार अभिनय था। फिलहाल यहां मुद्दा इस शो का मेरा अनुभव नहीं है! मेरी नजर इसके साथ आने वाली दूसरी खबर पर थी कि ‘द कैथे’ अब नई राह जा रहा है जिसमें कॉकटेल और क्राफ्ट बीयर बार के साथ ‘द प्रोजेक्टर’ की नई शुरुआत होनी है। अब यहां फिल्म स्क्रीनिंग के साथ लाइव प्रदर्शन होंगे।
द प्रोजेक्टर सिंगापुर का स्वतंत्र सिनेमा है जो मुख्यधारा की फिल्मों के साथ-साथ आर्टहाउस फिल्मों (कलात्मक सिनेमा) के प्रदर्शन पर केन्द्रित है। खास बात यह कि इसमें छोटे-छोटे थिएटर, पॉप अप वेन्यू, किराये पर सिनेमा, मांग पर फिल्मों का कॉन्सेप्ट शामिल है। बल्कि एक कदम आगे बढ़कर इसने होम स्ट्रीमिंग जैसे अभिनव प्रयोग की ओर कदम बढ़़ा दिए हैं जिसका जबरदस्त स्वागत हुआ है। क्या भारत में भी यह सब संभव हो सकता है?
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यह सब देखकर लगता है कि क्या वैकल्पिक सिनेमा के लिए छोटी-छोटी बुटिक नुमा प्रॉपर्टीज शुरू करने पर गंभीरता से विचार नहीं होना चाहिए? फिर लगता है कि जब बड़े-बड़े मल्टीप्लेक्स तक अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हों, कहीं यह हमारी एक सुखद कल्पना मात्र तो नहीं!
इस बीच घर के मोर्चे पर ‘जुग जुग जीयो’ की उधेड़बुन दिखी कि बॉक्स ऑफिस के मामले में कैसा जश्न मनाएं! रविवार को उछाल का या सोमवार की भारी संभावित गिरावट का! लेकिन इन दो हफ्तों में और भी कुछ दिखा। ‘घोड़े को जलेबी खिलाने ले जा रिया हूं’ जैसी छोटी दिखने वाली प्रयोगधर्मी फिल्म के सिनेमाघरों में प्रदर्शन ने कई सवाल उछाले हैं। पुरानी दिल्ली के हाशिये के समाज पर केन्द्रित यह फिल्म अगर पहले ही सप्ताह में लुढ़क जाने की आशंकाओं और भविष्यवाणी के बावजूद तीसरे सप्ताह में भी बॉक्स ऑफिस पर टिकी रही तो इसके कुछ तो संकेत होंगे! अनायास तो नहीं था कि दिल्ली के आसफ अली रोड पर डिलाइट डायमंड सिनेमा के हाउसफुल ने लोगों को लौटाया तो पहले वीकेंड शो में सौ फीसदी बुकिंग के बाद अंधेरी के सिनेपोलिस में इसके दो और शो जोड़े गए।
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हां, ‘घोड़े को जलेबी…’ की तुलना ‘जुग-जुग…’ से वैसी ही लग सकती है जैसे सेब की नारंगी से। सही भी है, घोड़े की रिलीज सीमित शोज के साथ दिल्ली-एनसीआर, मुंबई, पुणे, जयपुर और लखनऊ में हुई लेकिन फिर धीरे-धीरे इसे बेंगलुरू, अहमदाबाद और भोपाल में विस्तार मिला। हां, इस पर बहस जरूर जारी है कि क्या इसके बावजूद भी यह अपनी लागत निकाल पाएगी! लेकिन बड़ा सवाल यह कि क्या ऐसी चुनींदा, नियंत्रित रिलीज आगे बढ़ने का रास्ता है? और क्या इसे भारत में वितरण और प्रदर्शन की व्यावहारिक दिक्कतें झेल रहे स्वतंत्र फिल्मकारों के लिए सहज उपलब्ध संभावित विकल्प के तौर पर देखा जा सकता है। हालांकि इसके वितरक प्लाटून डिस्ट्रीब्यूटर का यह दावा सुखद और आश्वस्तिकारक है कि ‘गुणवत्तापूर्ण सिनेमा को अपने दर्शक तक पहुंचाने में अधिक से अधिक मदद करना उनका’ एकमात्र लक्ष्य है’।
‘घोड़े को…’ में उनके पास एक अच्छी फिल्म तो थी ही, व्यापक दृष्टिकोण और पारखी नजर वाला फिल्मकार भी था। प्लाटून के संस्थापक शिलादित्य बोरा का दावा है कि वे सिर्फ इसी के लिए फिल्म रिलीज नहीं करना चाहते थे। हम इसके लिए हर तरह से तैयार थे।’ हमारे सामने साफ था कि दर्शक कौन होंगे और कहां से आएंगे। इस आकलन के लिए बहुत काम हुआ। इसमें गैर सरकारी संगठनों, थिएटर ग्रुप्स, छात्रों के साथ ही अनामिका हक्सर की बड़ी पहचान भी शामिल थी। नतीजों से खासे विस्मित बोरा कहते हैं- “यह उपयुक्त जगह की तलाश, इच्छुक समुदाय तक पहुंचने और यह सनिश्चित करने के बारे में था कि वे सिनेमाघरो तक आएं। किरण राव, सईद अख्तर मिर्जा और नसीरुद्दीन शाह जैसे लोगों के समर्थन ने व्यापक दर्शक समुदाय तक पहुंचने में बड़ी मदद की।”
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इसके पीछे अतीत के कुछ अनुभव भी थे। खुशबू रांका और विनय शुक्ला की 2016 की डाक्यूमेंट्री ‘एन इनसिग्निफिकेट मैन’ का अनुभव था जिसे अपने शुरुआती दौर मे ‘आप’ कार्यकर्तताओं का साथ मिला, फिर नाटकीय रूप से अपनी जमीन मजबूत करते हुए इसने धीरे-धीरे इतने दर्शक खींच लिए कि 55 लाख की कमाई तक पहुंच गई। 2019 की फिल्म ‘द लीस्ट ऑफ दीज: द ग्राहम स्टेंस स्टोरी’ दूसरा आश्चर्य था जिसने एक दूसरे के मुंह से तारीफ मिलते-सुनते ठीक-ठाक व्यवसाय किया। 2012 की केवी रीट जैश भी है जो पहले सप्ताह में तो महज चार शोज के साथ शुरू हुई लेकिन बारहवें दिन तक इसके 52 शो चल रहे थे।
तो क्या ‘घोड़े को…’ उम्मीद की नई किरण के तौर पर देखा जाए? क्या यह ऐसा मॉडल हो सकता है जिसे दोहराया जाए? फिल्म निर्माता प्रतीक वत्स के लिए ऐसा सोचना पूरी तरह ठीक नहीं है क्योकि भारतीय दर्शक किसी एक मनोदशा में बंधने वाला नहीं है। यहां हर इंसान अद्भुत है और हर बार अलग तरह से सोचना चाहता है। वत्स का नजरिया भी साफ है- “अगर ‘इब अल्ले ऊ’, ‘पेड्रो’ से अलग है तो ‘मील पत्थर’ भी उससे अलग ही है। तीनों को आप एक टेम्पलेट में कैसे रख सकते हैं।”
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दरअसल हमारे यहां स्वतंत्र फिल्म निर्माण के हर चरण पर ध्यान देने की जरूरत है। वित्त जुटाने से लेखन और शूटिंग तक, फिल्म को दर्शक तक पहुंचाने-दर्शक को उस तक लाने तक, एक फिल्म निर्माता को हर पहलू के लिए खुद को समर्पित करना पड़ता है। ऐसी मजबूरी में उसके पास अगली फिल्म के लिए सोचने, लिखने और शूट करने का वक्त ही कहां बचता है? हां, स्वतंत्र फिल्मकारों के समर्थन मे स्थापित फिल्मकारों के खड़े होने का रुझान इधर बढ़ा जरूर है लेकिन यह उनकी माली हालत या थिएटर में सफलता का पैमाना तो नहीं है!
स्ट्रीमिंग प्लेटफार्म और तरह तरह के वादों ने कुछ विकल्प जरूर दिखाए हैं लेकिन यह हवाई ज्यादा है। फिल्म अगर ज्यादा दर्शकों तक पहुंच भी जाए तो लागत निकलना या मुनाफा सुनिश्चित नहीं हो जाता। वत्स अनायास तो नहीं कहते कि ‘दिखाने के विकल्प भले ही तमाम हों लेकिन कमाई का मामला अब भी सूखे कुएं जैसा ही है।’
ऐसे मे शिलादित्य बोरा सब कुछ दर्शक पर छोड़ देते हैं। उनकी नजर में सिस्टम से ज्यादा दर्शक जिम्ममेदार हैं। फिल्मों को लेकर और उनके इर्द-गिर्द तमाम बातें हो सकती हैं लेकिन लोग उन्हें देखने के लिए सिनेमाघरों तक जा रहे हैं? शायद नहीं? ऐसे में ओटीटी या थिएटर इन फिल्मों को क्यों लेने लगे? कोई क्यों बोझ उठाएगा? यहां इस बात का शायद कोई आसान जवाब नहीं है।
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