सिनेमा

स्त्री के स्वाभिमान की गाथा है फिल्म मिर्च मसाला, अस्मिता बचाने के लिए औरतें मिर्च मसाले को बनाती हैं हथियार

जाने-माने निर्देशक केतन मेहता की फिल्म ‘मिर्च मसाला’ स्त्री के आत्मसम्मान के अधिकार को पाने की प्रचंड यात्रा है। स्मिता पाटिल ने इस फिल्म में सोनबाई का अविस्मरणीय किरदार निभाया। फिल्म की डबिंग के बाद उनका देहांत हो गया था।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

स्मिता पाटिल ‘मिर्च मसाला’ फिल्म में खुद को पर्दे पर देख पातीं, इससे पहले ही उनका देहांत हो गया था। क्या उन्होंने अपने बेहतरीन अभिनयों में इसे भी शामिल किया होगा? ‘मिर्च मसाला’ फिल्म में ऐसी क्या बात है जो इतनी जिज्ञासा जगाती है और बांधे रखती है? क्या यह गुजरात के एक गांव में महिलाओं का एक खूबसूरत समूह है जो बहुत ही दिलेर हैं और अभी तक पितृसत्तात्मक समाज के नियमों के बोझ से लदी हुई हैं ? केतन मेहता की बनाई ‘मिर्च मसाला’ 33 साल बाद भी महिलाओं के अधिकारों के लिए एक रहस्यमय सम्मोहक दृष्टांत बनी हुई है। अनुभूति के सबसे ऊंचे स्तर पर यह एक शानदार रोमांचक कथा है। यह बहुत ही आकर्षक महिलाओं के एक समूह के बारे में है जो बहुत खतरनाक दरिंदे से बचने के लिए छिपने की कोशिश करती हैं।

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‘मिर्च मसाला’ व्यक्तिगत सम्मान और स्वाभिमान का एक रूपक है। सोन बाई (स्मिता पाटिल) के अविस्मरणीय किरदार के माध्यम से केतन मेहता एक जबरदस्त विचित्र व्यंग्यात्मक ड्रामा को चित्रिच करते हैं जिसमें एक स्त्री एक दरिंदे और शक्तिशाली पुरुष का विरोध करती है और जो अंततः एक युद्ध में परिवर्तित हो जाता है जिसका वह डटकर अपनी अन्य महिला साथियों के साथ सामना करती है। जब सोनबाई एक लम्पट अत्याचारी टैक्स-कलेक्टर, फिल्म में यह किरदार नसीरुद्दीन शाह ने निभाया है जिसमें उनकी बड़ी घुमावदार मूंछे होती हैं, से बचने के लिए भागती है और मिर्च की एक फैक्टरी में शरण मांगती है जहां वह अपनी जिंदगी पर आई विपदा से खुद को बचाना चाहती है। यह विपदा उसके पति (राज बब्बर जिनकी इसमें बतौर मेहमान कलाकार के रूप में भूमिका थी) के कारण उस पर आनपड़ी है क्योंकि वह उसे गांव में छोड़कर कामकाज के लिए शहर चला जाता है। दरअसल सोनबाई इतनी सुंदर है कि वह कामुक सूबेदार की निर्लज्ज नजरों से बच नहीं पाती है। पकी हुई मिर्चियों की दहकती-लाल पृष्ठभूमि के सामने दिलचस्प लैंगिंग छिटपुट झगड़ों से भी अधिक एक सिनेमा की छतके नीचे आप‘मिर्च मसाला’ में कुछ बहुत ही खूबसूरत महिलाओं की सम्मोहक कहानियों को देखते हैं।

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केतन मेहता ने उन अभिनेत्रियों का चयन किया था जो अपने सहज आकर्षण को खोए बिना गुजराती परिवेश में घुल-मिल जाएं। रतना और सुप्रिया पाठक- दोनों बहनें मिर्च की फैक्टरी की शानदार महिला बिग्रेड का हिस्सा हैं। लेकिन इन सबसे ऊपर और बहुत ऊंचे पायदान पर है सोनबाई- एक आकर्षक स्त्री जो सामुदायिक नारीत्व के स्वर्ग में आसरा चाहती है। अपनी जगह पर दीप्ति नवल का किरदार बहुत ही शानदार है। वह मिर्च की फैक्टरी के बाहर है। यह किरदार अधीनता और निष्प्रभावी विद्रोही का एक दिलचस्प अध्ययन है। यह उन सभी का भी प्रतीक है जो समय-समय पर हमारी पितृसत्तात्मक व्यवस्था से त्रस्त रहे हैं। हालांकि फिल्म स्मिता पाटिल के निभाए गए भावपूर्ण किरदार सोनबाई से संबंधित है लेकिन दीप्ति नवल का किरदार अंततः एक स्थायी छाप छोड़ जाता है। एक दृश्यमें अपने पतिद्वारा बंधक बनाई गई दीप्ति नवल जब खिड़की पर खड़ी होकर लाचारी में अपने हाथ खिड़की पर मारती है तो रोंगटे खड़ेहो जाते हैं।

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क्या ग्रामीण महिलाओं यदि वे केतन मेहता के किरादारों की तरह दिहाड़ी मजदूर भी हैं, को अपनी इच्छा से जीने का अधिकार है? दीप्ति के पतिका किरदार बहुत ही उल्लेखनीय संयम के साथ सुरेश ओबरॉय ने निभाया है। वह गांव का मुखिया है। वह पूरे गांव में न्याय बांटता रहता है लेकिन अपनी पत्नी के लिए उसके पास न्याय नहीं है। मुखिया की पत्नी के रूप में दीप्ति नवल का किरदार स्मिता पाटिल के किरदार सोनबाई से एकदम विपरीत है। मुखिया की पत्नी के लाचार गुस्से के विपरीत सोनबाई सरकारी नुमाइंदे- सूबेदार, के उसको ‘हासिल’ करने के अहंकार से भरे इरादे के खिलाफ पूरी दिलेरी के साथ खड़ी होती है और उसका प्रतिकार करती है। जब गांव का मुखिया उसे मनाने की कोशिश करता है कि वह सूबेदार के आगे समर्पण कर दे, तो सोनबाई कहती है कि वह समर्पण करने के बजाय मर जाना पंसद करेगी। मुखिया सोनबाई को चेताता है किअगर उसका पति यहां मौजूद होता तो वह भी उसे सूबेदार के आगे खुद को समर्पण करने को कहता। तो सोनवाई थूकते हुए कहती है, “मेरा अपने पतिको भी यही जवाब होता।”

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इस दृश्य में स्मिता पाटिल का अभिनय बहुत ही ज्वलंत है जिसे सिनेमेटोग्राफर जहांगीर चौधरी ने बहुत ही शानदार तरीके से अपने कैमरे में कैद किया है। इसमें सोनबाई एक जिद्दी विद्रोहिणी ग्रामीण महिला के रूपमें सामने आती है। पुरुष की आक्रामकता के खिलाफ उसकी लड़ाई में मिर्चकी फैक्टरी का बूढ़ा चौकीदार उसकी मदद करता है। इस फिल्म में बूढ़े चौकीदार की भूमिका ओम पुरी ने निभाई है। फिल्म में नसीर और ओम पुरी को दो विपरीत किस्म के किरदारों के रूप में देखने का अनुभव बहुत शानदार था। एक को यह जिद्दहै कि वह एक स्त्री(सोनबाई) के स्वाभिमान को अपनी कामुकता के लिए ध्वस्त करना चाहता है और दूसरा उसकी रक्षा करने के लिए दृढ़निश्चय के साथ डटा रहता है। अंत में चौकीदार गोली से धराशायी हो जाता है लेकिन यह रक्षा करने वाले की हार का क्षण नहीं है। केतन मेहता एक उत्कृष्ट चरित्र की मौत के आगे क्या कहते हैं, वह हम जानते हैं। कभी-कभी दम घोंटू पुरुष व्यवस्था की नींव को हिला देने के लिए अन्याय के खिलाफ संघर्ष ही पर्याप्त होता है। कभी-कभी महिलाएं अपने स्वाभिमान की रक्षा कर सकती हैं, भले ही उनके पास जो हथियार हैं, वे केवल विरोध का संकेत होते हैं। कभी- कभी गलत कार्य को ना कहना ही पर्याप्त होता है।

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‘मिर्च मसाला’ एक स्त्री के आत्म सम्मान के अधिकार को पाने की प्रचंड यात्रा है। इसे बह ना पाया पीड़ित और शोषक के बारे में स्पष्ट तौर पर एक रोमांचक कथा भी कहा जा सकता है। चाहे जो भी हो, फिल्म का आत्मविश्वास और उसकी ताकत दशकों बाद भी अमिट बनी हुई है। फिल्म में निम्न कोटिका सूबेदार एक जादुई यंत्र के रूपमें गांव में ग्रामोफोन लाता है। गांव के लोगों को आतंकित करने के लिए इस नए खिलौने के रूप में वह अपने 78 आरपीएम रिकॉर्ड को बजाता है और उनकी महिलाओं को सम्मोहित करता है। फिल्म की पृष्ठभूमि स्वतंत्रता से पूर्व की है। ‘मिर्च मसाला’ जरूरत से ज्यादा ताकत को एक हास्यास्पद और विचित्र तरीके से दिखाती है। जब सूबेदार मिर्च की फैक्टरी के गेट को तोड़ने का फैसला करता है तो वह सोचता है कि वह सोनबाई के रक्षा कवच को भेद रहा है। ताकत अंधी भी होती है। अंत में घिनौने सूबेदार की कामुक आंखों में महिलाएं अपने आत्म सम्मान का मिर्च का पाउडर उड़ेल देती हैं।

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‘मिर्च मसाला’ फिल्म के बारे में केतन मेहता का कहना था, “स्मिता मेरी बहुत अच्छी दोस्त थीं। ‘मिर्च’ मसाला में उनका अभिनय उनके बेहतरीन अभिनयों में से एक है। फिल्म की डबिंग करने के बाद वह इस दुनिया में नहीं रहीं। उन्होंने बहुत ही बारीक से बारीक चीजों को बेहतरीन तरीके से निभाया। मैं उन्हें अपने फिल्म इंस्टीट्यूट के जमाने से जानता था। उन्होंने मेरी पहली फीचर फिल्म‘भवनी भवाई’ में काम किया था। सोनबाई के किरदार के लिए वह मेरी एकमात्र पसंद थीं। जैसे ही उन्होंने स्क्रिप्ट पढ़ी, वैसे ही उसे उन्होंने आत्मसातकर लिया। ‘मिर्च मसाला’ फिल्म महिलाओं की स्थितियों पर है। यह गुजराती लेखक चुन्नीलाल मडिया की एक लघु कथा थी। वह चार पेज की कहानी थी। लेकिन वह सौराष्ट्र के एक तंबाकू की फैक्टरी पर आधारित थी।

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कहानी का अंत फैक्टरी के चौकीदार की मौत से होता है। मैंने इसे मिर्च की फैक्टरी में परिवर्तित कर दिया। जिस क्षण मैंने गुजरात में मिर्च के खेत देखे, उसी क्षण मेरे दिमाग में यह आइडिया आया। फिल्म के अंत में सोनबाई खलनायक की आंखों में मिर्च फेंककर विद्रोह का आगाज करती है। सन 2010 में चेन्नई में महिला फिल्म कारों को समर्पित एक फिल्म समारोह आयोजि तकिया गया था। उन्होंने ‘मिर्च मसाला’ को भी इसके लिए आमंत्रित किया था, हालांकि मैं महिला फिल्मकार नहीं हूं। उन्होंने इसे महिला सशक्तिकरण के रूप में देखा। उस शाम गुजरात से बहुत दूर चेन्नई में युवा तमिल महिलाओं ने इतनी शानदार प्रतिक्रिया दी किमेरी आंखों से आंसू नहीं रुके।

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