धंधेबाज लोगों के लिए फिल्म फेस्टिवल का आयोजन एक नया शगल है। नया धंधा है। पैसे बनाने और प्रतिष्ठा अर्जित करने की कोशिशों का नया जरिया है लेकिन वह नहीं है जो दरअसल उसे होना चाहिए। सिनेमा से प्यार! सिनेमा का विस्तार! अच्छी फिल्मों को लोगों तक सहज उपलब्ध कराना! आप में से कई लोगों ने नोटिस किया होगा कि पिछले कुछ सालों से देशभर में फिल्म फेस्टिवल कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे बड़े शहरों की तो बात ही न करें, छोटे-छोटे शहरों में अब तरह-तरह के फिल्म फेस्टिवल होने लगे हैं।
इसे अगर एक व्यापक सोच के साथ देखें तो इसमें कोई बुराई नहीं है। यह तो अच्छा ही है कि लोगों के लिए मुफ्त में फिल्में देखने के लिए उपलब्ध हो रही हैं। यहां तक कोई समस्या नहीं है। समस्या वहां दिखती है जब हम इन फिल्म समारोहों के आयोजकों की पृष्ठभूमि और उनकी नीयत को गहराई से देखते हैं। पता चलता है कि उनका मकसद सिनेमा का प्रचार-प्रसार नहीं बल्कि खुद का प्रचार-प्रसार है। सीधे शब्दों में कहें तो इन आयोजकों में से ज्यादातर का सिनेमा से उतना ही संबंध है जितना गुलाब-जामुन का गुलाब से!
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पिछले दिनों बिहार में दरभंगा, सीवान, चंपारण, पूर्णिया, मुज्जफरपुर जैसे कई शहरों में फिल्म फेस्टिवल आयोजित किए गए। एक बार और कहता हूं कि एक दृष्टि से यह अच्छा है कि यहां के लोगों को मुफ्त में अच्छी फिल्में देखने का मौका मिल गया। लेकिन सवाल वही है। इनका आयोजन कौन कर रहा है? अगर आयोजक के दिमाग में इसके नाम पर स्थानीय प्रशासन, नेताओं और स्थानीय व्यापारियों से कुछ पैसे बटोर लेने और खुद के लिए माहौल बना लेने भर की बात है तो फिर इनमें वही होगा जैसी उम्मीद की जा सकती है।
समारोह का उद्घाटन किन्हीं नेता या कलेक्टर, बीडीओ या नेता के कर कमलों से होगा। वह सिनेमा पर कुछ अधकचरे ज्ञान बांचेगा। दो-चार घटिया किस्म के गायक नाच-गाना करेंगे और कुछ घटिया फिल्में दिखा दी जाएंगी और उन्हीं में से दो-एक को अवार्ड देकर समापन समारोह संपन्न कर लिया जाएगा। और इसके बाद? इसके बाद फलां फिल्म फेस्टिवल से अवार्ड पाए फिल्मकार महोदय अपनी घटिया फिल्म को फलां फिल्म फेस्टिवल से अवार्ड विनिंग फिल्म बताते हुए फेसबुक पर, अपनी ही तरह के अज्ञानी प्रशंसकों से लाइक्स बटोरेंगे और खुश रहेंगे। बस इसके बाद, न तो उस फिल्म का कुछ होना है और न उस कथित फिल्मकार महोदय का।
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कहना न होगा कि फिल्म फेस्टिवल, अगर पूरी गंभीरता से किए जाएं तो एक व्यापक प्रभाव छोड़ सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज भारत में हजारों की संख्या में होने वाले फिल्म समारोहों के बीच सिर्फ दर्जन भर फिल्म फेस्टिवल हैं जिनकी इज्जत है और जिनका नाम है। अगर इन फिल्म फेस्टिवल या फिल्म समारोहों में आपकी फिल्म चुनी और दिखाई जाती है तो निश्चित तौर पर यह सम्मान की बात है। यह भी काबिले गौर है कि इन इज्जदार फिल्म फेस्टिवल में से ज्यादातर ऐसे हैं जो सरकारों द्वारा चलाए जाते हैं। चाहे वह केंद्र के हों या राज्य सरकारों के हों।
गोवा में होने वाले भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह और मुंबई में हर दो साल में होने वाला मुंबई अंतरराष्ट्रीय डॉक्युमेंट्री और लघु फिल्मों के समारोह का आयोजन केंद्र सरकार का सूचना और प्रसारण मंत्रालय करता है। वहीं, केरल (केरल अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह) और पश्चिम बंगाल (कोलकाता अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह) की सरकारें हर साल फिल्म फेस्टिवल का आयोजन बड़े धूमधाम से करती हैं, जिनमें दुनिया भर की फिल्में और फिल्मकार शिरकत करते हैं। इन फिल्म समारोहों की बड़ी इज्जत है। यहां हर अच्छा फिल्मकार अपनी फिल्में दिखाना चाहता है। इनका सारा खर्च केंद्र और राज्य सरकारें उठाती हैं। इन सरकारी फेस्टिवलों के अलावा धर्मशाला इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, मुंबई का मामी फिल्म फेस्टिवल जैसे गिने-चुने फिल्म फेस्टिवल हैं जिनके पीछे वैसे लोग हैं जो सिनेमा को धंधा नहीं समझते हैं। इसलिए इनकी इज्जत और प्रतिष्ठा है।
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अब जरा ऐरे-गैरे, नत्थू-खैरे टाइप लोगों और उनके द्वारा चलाई जा रही फिल्म फेस्टिवल की दुकान के बारे में जानिए। लालाओं का एक परिवार है जो अखबार चलाता है। इसे न तो पत्रकारिता से और न सिनेमा से कोई लेन-देना है। इसे सिर्फ पैसे से मतलब है, तो लाला जी और उनके परिवार वालों को बड़े-बड़े फिल्मी सितारों के साथ फोटो खिंचवाने का बड़ा शौक है। पहले अपने रिपोर्टरों को तंग करते थे। अब उन्होंने फिल्म फेस्टिवल का धंधा शुरू कर दिया है। प्रायोजकों से मोटा पैसा बटोरते हैं और घूम-घूम कर फिल्म फेस्टिवल कर रहे हैं। सितारों के साथ फोटो खिंचवा रहे हैं, सो अलग। यकीन मानिए, लाला जी ने अपने जीवन में चार ढंग की फिल्में नहीं देखी होंगी।
लाला तो खैर पैसे वाला व्यक्ति है, लेकिन मैं कई ऐसे फटीचरों को जानता हूं जो फिल्म फेस्टिवल के नाम पर राज्य सरकारों से पैसे वसूलता है और कोई न कोई जुगाड़ से किसी छोटी-मोटी हीरोइन को पकड़कर ले आता है और नेताओं और अफसरों के साथ उनकी फोटो खिंचवा देता है। नेता प्रसन्न। अफसर प्रसन्न। अगले साल की स्पॉन्सरशिप पक्की!
एक पूरी की पूरी जमात ऐसे कथित फिल्मकारों की है जो इन्हीं फटीचर फिल्म फेस्टिवल में अपनी फिल्में भेजकर और वहां से अवार्ड लेकर अपनी दुकान चला रहे हैं। हैरत की बात यह है कि ऐसे फिल्मकारों की फिल्में न तो कहीं और दिखती हैं और न इन पर चार लाइन लिखने के लिए कोई ढंग का फिल्म समालोचक तैयार होता है। फिर भी ये अपनी दुकानदारी कैसे चलाते हैं? ऐसी घटिया फिल्में बनाने के लिए भी पैसे कहां से लाते हैं? कौन इनकी फिल्मों को देखता है? कौन इनकी फिल्म में पैसा लगाने के लिए तैयार होता है?
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बहरहाल, आपको बता दूं कि अपने हिंदुस्तानी भाई, फिल्म फेस्टिवल का यह धंधा सिर्फ हिंदुस्तान में ही कर रहे हों, ऐसा नहीं है। हिंदुस्तान से बाहर रहने वाले भाइयों ने भी यह धंधा चलाया हुआ है। गूगल पर सर्च करें तो पाएंगे कि कनाडा, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, फ्रांस, नेपाल, जर्मनी, लंदन जैसे कई मुल्कों में हिंदुस्तानी भाई फिल्म फेस्टिवल की दुकान चला रहे हैं। बस, ऐसे फिल्म फेस्टिवल के नाम से पहले उन्हें ‘इंडिया’ जोड़ना होता है। जैसे, लंदन इंडिया फिल्म फेस्टिवल, मोंट्रियल साउथ एशिया फिल्म फेस्टिवल... वगैरह-वगैरह।
यह सारा खेल पैसे बटोरने का है। अब तो कई भाई लोग फिल्म फेस्टिवल के नाम पर स्टार्टअप भी लेकर आ रहे हैं। बजट दो करोड़। गेस्ट और सितारों पर खर्च पचास लाख। आयोजन पर खर्च पचास लाख। फायदा एक करोड़! क्या आप यकीन करेंगे कि कई ऐसे फेस्टिवल हैं जो पैसे लेकर आपको अवार्ड देने का सर्टिफिकेट देते हैं? अवार्ड के बदले दस डॉलर से लेकर सौ डॉलर तक खर्च करना होता है। ऐसे फेस्टिवल सिर्फ कागज पर आयोजित होते हैं। आस्ट्रेलिया में रहने वाली एक हिंदुस्तानी महिला फिल्मकार ने जब उत्साहित होकर अपनी नई फिल्म को लंदन फिल्म फेस्टिवल से बेस्ट फिल्म का अवार्ड मिलने का सर्टिफिकेट भेजा तो मैंने कहा, यह तो फर्जी है। अच्छी फिल्म बनाओ... असली अवार्ड तुम्हारा पीछा करेंगे। वह नाराज हो गई। तब से उसका कोई फोन नहीं आया है।
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