बहुत से लोग यह मानते हैं कि सेक्स संबंधी समस्याओं को लेकर सार्वजानिक मंचों पर बात किया जाना सही नहीं है। पता नहीं उन लोगों की उस फिल्म के बारे में क्या राय होगी जिसके केंद्र में ही एक सेक्स संबधी समस्या है?
हाल ही में रिलीज हुई फिल्म ‘शुभ मंगल सावधान’ की कहानी पुरुषों की एक आम सेक्स समस्या इरेक्टाइल डिस्फंक्शन के इर्द-गिर्द घूमती है। यह फिल्म बहुत ही हंसी-मजाक के साथ इसे पेश करती है और अपनी तरह से यह सन्देश भी देने की कोशिश करती है कि पुरुषत्व का मतलब सिर्फ उचित इरेक्शन होने तक ही सीमित नहीं है।
हमारे समाज में पुरुषों की सेक्स समस्याओं पर बात करना लगभग वर्जित है। इसलिए कोई हैरानी की बात नहीं कि सेक्सोलॉजिस्ट और तमाम तरह के नीम-हकीमों के पास दबे-छिपे तौर पर पुरुष इन समस्याओं को लेकर पहुंचते हैं और उनके मुनाफे में लगातार इजाफा कर रहे हैं। यह एक अजीब विरोधाभास है कि तमाम मुश्किलों के बावजूद जब हमारे समाज में महिलाएं इन दिक्कतों को लेकर खुल कर बात करने लगी हैं, फिर भी पुरुषों के भीतर अपनी शारीरिक दिक्कतों के बारे में बात करने को लेकर हिचकिचाहट बनी हुई है। पति-पत्नी भी आपस में कभी-कभार ही ऐसा कर पाते हैं। हाल में स्त्री ऑर्गाज्म को लेकर चर्चा तो शुरू हुई है, लेकिन वह भी एक शिक्षित और अंग्रेजीदां वर्ग तक ही सीमित है। मगर पुरुषों की सेक्स समस्याओं के बारे में ज्यादा बात इसलिए नहीं होती, क्योंकि समाज में यह भ्रांति आम है कि पुरुषों की दिक्कत सम्भोग की क्रिया में देर तक बने रहने तक सीमित है।
इससे जुड़ी कुछ और वर्जनाएं हैं। अगर हम किसी ‘जेंट्स प्रॉब्लम’(फिल्म में इरेक्टाइल डिस्फंक्शन को यही नाम दिया गया है) पर बात करते हैं तो समझा जाता है कि हम किसी पुरुष की ‘कमजोरी’ को सामने ला रहे हैं। और पुरुष वर्चस्व वाले समाज में कोई पुरुष अपनी कमजोरी पर बात करना कैसे बर्दाश्त कर सकता है!
हमारे देश में तकरीबन 150 रजिस्टर्ड सेक्सोलॉजिस्ट हैं, जबकि देश भर की इमारतों की दीवारें संदिग्ध प्रतिष्ठा वाले अनेक सेक्सोलॉजिस्ट के विज्ञापनों से भरी पड़ी हैं। और ये सभी सेक्सोलॉजिस्ट अपने चमत्कारी इलाज से ‘मर्दानगी’ वापस लाने का दावा करते हैं। मर्दानगी की उनकी समझ सिर्फ उचित इरेक्शन या सम्भोग में ‘देर तक’ बने रहने से अधिक नहीं है। फिर इंसानी सेक्सुअलिटी तो जितनी जिस्मानी है उतनी ही जहनी भी। इस वजह से भी इस पर एक गंभीर चर्चा होना जरूरी है।
‘शुभ मंगल सावधान’ एक तमिल फिल्म का रीमेक है। एक मध्यवर्गीय सहज हास्य और कुछ जीवन से जुड़े किरदारों के अलावा इसमें कुछ भी मौलिक नहीं है।
लेकिन फिल्म का विषय अपने आप में एक सकारात्मक पहल है चाहे उसे कितना भी अगंभीर तरीके से क्यों ना पेश किया गया हो। पहली बार, एक व्यवसायिक हिंदी फिल्म इस बारे में बात कर रही है। माता-पिता को सेक्सुअलिटी के बारे में अपने बच्चों से बात करने के दौरान जो असुविधा और अटपटापन महसूस होता है, इस फिल्म में उस पहलू को भी दर्शाया गया है।
यह एक अच्छा बदलाव है। एक समाज जो पुरुष गुणों पर इतना आसक्त है (हमेशा बताया जाता है कि रोना नहीं चाहिए, लड़ना चाहिए, मज़बूत और आक्रामक बनना चाहिए),उसके बीच फिल्म पुरुषत्व से जुड़ी कोमलता और संवेदनशीलता की बात करती है। पुरुषत्व से जुड़ा एक नाजुक पहलू भी है, जिसे हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं। हमारी नारीवादी चर्चा भी कभी-कभार महिलाओं को पुरुष गुणों को आत्मसात करने की तरफ प्रेरित करने लगती है।
यह फिल्म बहुत सूक्ष्म स्तर पर ‘जेंट्स प्रॉब्लम्स’ यानी पुरुषों की सेक्स संबधी समस्याओं और एक तरह से नारीवादी दिक्कतों के एक आसान से उपाय की तरफ इशारा करती है- महिलाओं के बारे में बात करने की बजाय बेहतर है कि उनसे बात की जाए।
Published: 03 Sep 2017, 10:45 AM IST
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Published: 03 Sep 2017, 10:45 AM IST