सिनेमा

पढ़िए 85 साल पहले क्या लिखा था फिल्म अभिनेत्री ने कास्टिंग काउच के बारे में...

‘एक  बहन ऐसी ही अवस्था में पहुँच गयी थी, एक सेठ जी से उसे अवैध बच्चा होने वाला था। वह खुश थी, पर उसे दबाव में महानिन्दनीय काम करना पड़ा और सेठ जी को एक एक हज़ार के कई नोटों से हाथ धोने पड़े।’

फोटो  : सोशल मीडिया
फोटो  : सोशल मीडिया 

पिछले दिनों देशभर में इस बात पर बवाल मच गया था कि मशहूर कोरियोग्राफर सरोज खान ने आखिर यह कैसे कह दिया कि बाबा आदम के जमाने से कास्टिंग काउच चल रहा है। इस बात से ज्यादा उनके इस बयान पर हल्ला मचा था कि बॉलीवुड रेप के बदले रोटी तो देता है, छोड़ तो नहीं देता। सरोज खान के इस बयान के बाद नेता-अभिनेता मैदान में कूद पड़े। कुछ उनके बयान से सहमत दिखे, तो कुछ नाराज। कुछ ने इस बयान का मजाक उड़ाया। लेकिन असलियत है क्या? क्या फिल्मों में कास्टिंग काउच का कल्चर सच में बाबा आदम के जमाने यानी लंबे समय से चल रहा है? क्या इसके खिलाफ किसी ने आवाज़ नहीं उठाई?

आज हम आपको अगस्त 1934 में प्रकाशित एक अनाम फिल्म अभिनेत्री की आपबीती बताने जा रहे हैं, जो उन्होंने खुद अपने शब्दों में उस समय की मशहूर हिंदी फिल्म पत्रिका सिनेमा संसार के लिए लिखी थी। इस आपबीती में उन्होंने जो कुछ बयां किया है, उससे सरोज खान की बात की तस्दीक होती दिखती है, फिल्मी दुनिया के काले सच की भी...

हम इस आपबीती को बिना संपादित किए प्रकाशित कर रहे हैं:

भारतीय फ़िल्मी दुनिया से मेरा रिश्ता बहुत वर्षों पहले का है। अभिनेत्री की हैसियत से वर्षों तक विभिन्न कंपनियों में काम कर चुकी हूँ, पर अपने स्वभाव के कारण कहीं भी स्थिर नहीं रह पायी। इसका कारण शायद यह है कि मैं ब्राह्मण की लड़की हूँ। इस ‘हूँ’ को लिखते समय भी मेरी चिंता और भी गहरी हो जाती है। मन कहता है— चाहे जैसे भी दुष्कार्य किये हों, चैन कितनी ही पतित हो गयी हूँ, पर रहूंगी तो ब्राह्मण की लड़की ही! लेकिन दुनिया के बर्ताव को देख कर इच्छा होती है कि ब्राहमण की लड़की कहलाने की बनिस्बत अभिनेत्री कहलाना कहीं अच्छा है! खैर, आप जो चाहें समझें; मैं तो ब्राह्मण के घर पैदा हुई, विधवा हुई, भ्रष्टा हुई; न जाने क्या क्या हुई, पर जो कुछ भी हुई, परिस्थिति के फेर में पड़ कर! इस छोटे से जीवन में मैंने जितने भी दुष्कर्म किये हैं, मेरे संस्कार सदा उनका विरोध करते रहे हैं। यही कारण है कि अभिनेत्री जीवन में मैं कभी सफल न हो सकी।

स्टूडियो वाले मुझे जिस ढाँचे में ढालना चाहते थे, मैं उसमे ढल न सकी। जिन दिनों मैं बम्बई में काम करती थी, मेरे दिल में यही सवाल उठा करता था कि क्या मैं अपने अभिनेत्री जीवन के अभ्युदय के लिए अपनी निजी ख्वाहिश, अपने दिली अरमानों का खून कर दूं? पर यह मुमकिन नहीं था, मैं चाहती भी नहीं थी कि अभिनेत्री जैसे अस्थिर जीवन के लिए अपने व्यक्तिव का नाश कर डालूँ, पर तो भी, ना जाने क्यों, मैं फिल्म संसार से अलग न हो सकी, और न घर ही बसा सकी। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि उन दिनों जनता यह बर्दाश्त नहीं कर सकती थी कि कोई विवाहिता स्त्री अभिनेत्री का जीवन बिताए।

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कई बार ऐसा हुआ कि कुछ युवतियां फिल्म में काम करने की इच्छा से आईं, पर उन्हें इस कारण काम नहीं मिला कि वे अवैध कन्या या पुत्र की माँ हैं ! उन दिनों फिल्मों में काम करने वाली बहनें यदि गर्भवती हो जातीं, तो उनकी आधी जान निकल जाती, पर किसी सुयोग्य डॉक्टर और दवाइयों की सहायता से उनके जीवन का काँटा निकाल दिया जाता। थोड़े दिन पहले की बात है, एक बहन ऐसी ही अवस्था में पहुँच गयी थी, एक सेठ जी से उसे अवैध बच्चा होने वाला था। वह एक प्रकार से खुश थी, पर उस अभागी बहन को अपनी फूफी आदि के दबाव में पड़ कर महानिन्दनीय काम करना पड़ा और सेठ जी को भी क्षतिस्वरूप एक एक हज़ार के कई नोटों से हाथ धोने पड़े।

एक दिन अपने मकान के बरामदे में बैठी विचारों की उधेड़बुन में फंसी हुई थी कि एक नौकर ने आकर एक विजिटिंग कार्ड पेश किया। उस पर स्थानीय सिनेमा पत्र के प्रतिनिधि का नाम था। मैं सोचने लगी, मुझ जैसी अख्यात नाती से मिल कर यह क्या पूछेगा? फिर नौकर से कहा- जाओ भेज दो। सर से पैर तक खद्दर की पोशाक पहने, चश्मा लगाए एक युवक मेरे सामने आया।

नमस्ते!

मेरा हाथ आप से आप उठ गया। ‘बैठिये !’ युवक को गौर से देखते हुए मैंने कहा। वह बैठ गया। अपने अखबार के कुछ अंक दिखलाए। मैंने शिष्टाचार स्वरुप कह दिया- अच्छा है।

“मैं आपसे इंटरव्यू करने आया हूँ। कुछ सवाल करूंगा।।” युवक ने नम्रतापूर्वक कहा।

मैंने भी तुरंत जवाब दिया- “माफ़ कीजियेगा, आप जो चाहें, बस एक सवाल पूछ सकते हैं।” युवक कुछ हतप्रभ सा हो गया। ज़रा सोच कर उसने पूछा, “ अगर अभिनेत्री जीवन छोड़ दें, तो क्या करेंगी?”

आह! कैसा मर्मभेदी प्रश्न था वह ! जिस सवाल को हल करने का मैं वर्षों से विचार कर रही हूँ, तो भी हल न कर सकी, वही सवाल यह युवक पूछ बैठा! जवाब तो देना ही था। मैं दिमाग की तमाम ताकत को लगा कर इस सवाल का जवाब सोचने लगी। नौकर तब तक चाय, पान, सिगरेट ले आया। मुझे सोचने का मौका मिल गया।

युवक ने चाय पीकर सिगरेट जलाई और उत्सुकतापूर्वक मेरी तरफ देखने लगा। आखिर में मैं बोली- “ मेरा इरादा है कि दस-पांच हज़ार की रकम जमा होते ही यह काम छोड़ दूं; हिन्दुस्तान में घूमूं, आनंद से जीवन व्यतीत करूं और अगर कोई अच्छा आदमी मिल जाए तो शादी कर लूं।”

उसने जवाब नोट कर लिया, मेरी तारीफ़ की और फिर दर्शन का भरोसा देकर चला गया। इसी तरह महीनों बीत गए, पर हज़ार तो क्या पांच सौ रुपए भी जमा न हो सके। जैसे ही सौ-दो सौ रुपए होते, कोई ना कोई खर्च सर पर आ जाता और रुपए हाथ से निकल जाते। कंपनी में काम करने से पहले सोचा था कि मैं नियमित जीवन व्यतीत करूंगी, रुपए बचाऊँगी पर कुछ न कर सकी।

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सबसे बड़ा दुःख तो यह है कि लालसा की लगाम भी मेरे कमज़ोर हाथों से निकल कर एक सिनेरियो राइटर के हाथों में चली गयी—वह बेचारा था तो शरीफ, पर साथ ही कायर था, छिप-छिप कर काम करने की जो घृणित आदत हिन्दू समाज में घर कर गयी है, उसी का वह भी शिकार बना हुआ था। उसका और मेरा संबंध गुप्त होने पर भी प्रकट था, प्रकट होने पर भी गुप्त था, क्योंकि हम दोनों का संबंध समाज के नियमानुसार नाजायज़ था !

स्टूडियो भर में ‘सनकी, तेज़ मिज़ाज’- ये विशेषण मेरे लिए कहे जाते। कारण, मैंने कभी मालिक या डायरेक्टर के कहे मुताबिक काम नहीं किया, नहीं तो अवश्य प्रसिद्ध ‘स्टार’ बन गयी होती। पर मैंने तो स्टार बनने के लिए जन्म नहीं लिया था, इसलिए स्टार बन न सकी, तो इसका मुझे कोई विशेष दुःख भी नहीं है।

‘सहस्र रजनी चरित्र’ की कहानी के आधार पर एक फिल्म बन रही थी, एक युवक नए-नए डायरेक्टर बन कर आये थे। उन्होंने मुझे प्रधान पार्ट देना चाहा। मैं बहुत खुश हुई। अपने भाग्य को सराहा। वे मुझे सीन समझाने लगे कि ऐसा है, वैसा है। एक जगह उन्होंने कहा- जंगल के भीतर एक तालाब है, वहां पर राजकुमारी और सखियाँ नहाने आती हैं, कोई पुरुष नहीं है। वे कपड़े रख कर नहाने जाती हैं, इतने में राजकुमार आता है, कपड़े चुरा लेता है और राजकुमारी और उसकी सखियों को नग्नावस्था में पानी से बाहर आने को कहता है; मजबूरन वे बाहर आती हैं।

यह सुन कर मैंने कहा- बस हो गया। मुझे राजकुमारी का पार्ट नहीं चाहिए। बेचारे डायरेक्टर ने बहुत समझाया, पर मैं नहीं मानी। नतीजा यह हुआ कि मालिक नाराज़ हो गए और मुझे नौकरी से हाथ धोना पड़ा।

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साल भर तक एक और स्टूडियो में रही। पेट काट कर किसी तरह आठ सौ रुपये जमा किये और बम्बई को नमस्कार कर नासिक, नागपुर, लाहौर और लखनऊ आदि से होते हुए कलकत्ता आ गयी। यहां शिमले में मकान लेकर रहने लगी। उस घर में बंगालिन कीर्तन गायिकाएं, नाचने वालियां और रखेलियाँ रहती थीं। यहाँ आकर बंगालिनों में एक अद्भुत बात देखी। समाज से बहिष्कृत होने पर भी धर्म के प्रति इनकी अगाध श्रद्धा है ! ये गंगा नहातीं, व्रत करतीं, और ब्राह्मण को दान देतीं।

बम्बई से चलते समय मित्रों ने कहा था- सुमन ! (मेरा नकली नाम) तुम अपना करियर नष्ट करके जा रही हो, कुछ दिनों में लोग तुम्हे भूल जायेंगे, जैसे दर्जनों अभिनेता-अभिनेत्रियों को भूल गए। मैं मित्रों की बात पर मुस्कुरायी। गाड़ी छूट गयी, सोचने लगी—ये बेचारे समझते हैं कि मेरा करियर नष्ट हो गया, पर इन्हें नहीं मालूम कि कलकत्ते में भी मैं अभिनेत्री का पेशा नहीं छोडूंगी...

कलकत्ते में सभी स्टूडियो की खाक़ छानने के बाद मुझे एक स्टूडियो में साधारण सी जगह मिल गयी है। यहाँ के स्टूडियो का वातावरण बम्बई के स्टूडियो से बिलकुल भिन्न प्रकार का है। वहां वाले अभिनेता - अभिनेत्रियों को गुलाम समझते हैं, परन्तु यहां पर वैसी परतंत्रता नहीं है। अभिनेत्री के घरेलू जीवन के संबंध में यहां के स्टूडियो वाले उतनी दिलचस्पी नहीं रखते, इन्हें तो काम से काम है, ...मेरी फिल्म की शूटिंग शुरू होने वाली है, आजकल अपने छोटे से पार्ट की तैयारियों में मशगूल हूं। इसके बाद जो होगा सो देखा जायेगा।

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