फिल्म ‘2.0’ जिसका का एक डायलॉग है- कम माय सेल्फी लवर्स आई विल सेट योर स्क्रीन्स ऑन फायर’ परदे पर फुस्स साबित होती है। पूरी फिल्म के दौरान ऐसा लगता है कि फिल्म पर लगाया गया इतना सारा पैसा बर्बाद गया है। आपको बता दें कि 543 करोड़ की लागत से बनाई गई इस फिल्म का बहुत बेसब्री से इंतजार किया जा रहा था।
‘2.0’ के नाम से निर्देशक शंकर फिल्म ‘रोबोट’ का सीक्वेल लेकर आए हैं। जैसी उम्मीद थी जा रही थी कि फिल्म में शानदार विजुअल्स होंगे, फिल्म में वैसे विजुअल्स जरूर हैं। और इस तथाकथित साइंस फिक्शन में भी वही संदेश है जो आम तौर पर हमारी फिल्मों में होता है कि अच्छाई की बुराई पर हमेशा जीत होती है और इंसानी दुनिया में पॉजिटिव और नेगेटिव के बीच लगातार कशमकश चलती रहती है।
यह फिल्म एक सरल सी कहानी को बहुत सारे भव्य स्पेशल इफेक्ट्स के साथ कहती है। हां, इतना जरूर है कि फिल्म के बेहद असरदार 3डी इफेक्ट्स बच्चों को काफी आकर्षक लगेंगे। इनके जरिये बच्चों को समझाया जा सकता है कि सेल फोन का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल कितना घातक होता है और सेल फोन से मिल कर बना विलेन बच्चों के दिमाग में एक भयावह छवि भी बना सकता है।
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लेकिन बदकिस्मती से ये फिल्म इससे ज्यादा और कुछ नहीं करती। यह हमारे यहां के फिल्म निर्देशकों की बड़ी दिक्कत है कि वे टेक्नोलोजी के असर में जरूरत से ज्यादा बह जाते हैं। विडंबना ये है कि इसी बात की निंदा वो अपनी फिल्म में कर रहे होते हैं। अगर निर्देशक ने टेक्नोलोजी से ज्यादा कहानी पर और साइंस की डिटेल्स पर ध्यान दिया होता तो ये फिल्म कहीं अधिक असरदार होती।
फिल्म ‘2.0’ की कहानी एक पर्यावरणविद और पक्षी विज्ञानी की है, जो पंछियों को सेल फोन टावर के रेडिएशन से बचाना चाहता है। जब तमाम कोशिशों के बाद उसकी बात पर तवज्जो नहीं दी जाती तो वह एक सेल फोन टावर पर ही खुदकुशी कर लेता है और उसकी आत्मा पंछियों की आत्मा से मिल कर एक निगेटिव एनर्जी में तब्दील हो जाती है जो सभी सेल फोन टावर्स और उनके निर्माताओं को बर्बाद करने में जुट जाती है। अब इस बर्ड मैन से निपटने के लिए डॉक्टर वशीकरन अपने रोबोट चिट्टी की मरम्मत करके उसे फिर से जिंदा करते हैं। लेकिन असल कन्फ्यूजन यही है। क्या हम उन लोगों से लड़ रहे हैं जो पर्यावरण को बचाना चाहते हैं और वो भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के सहारे? फिल्म के अंत में डॉ वशीकरन पर्यावरण को बचाने के लिए जो एकलौता संवाद बोलते हैं वो महज औपचारिकता भर है।
सुपरस्टार रजनीकांत अब थके हुए लगने लगे हैं। वह भी तमाम स्पेशल इफेक्ट्स के बावजूद। अब बेहतर होगा कि वह अपनी लीजेंड को जिंदा रखें और फिल्में ना करें। हो सकता है कि बीजेपी के सहारे राजनीति में उनका कोई भविष्य हो, वर्ना फिल्मों में तो नहीं लगता।
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अब हम आते हैं अक्षय कुमार पर। फिल्म में उनका गेटअप काबिले तारीफ है और विजुअली डॉक्टर पक्षीराजन के रोल में बहुत असरदार दीखते हैं। लेकिन उनकी हिंदी डबिंग बेहद कमजोर है। विज्ञापनों में माहवारी को माहवरी बोलने वाले अक्षय कुमार ओर्निथोलॉजिस्ट शब्द भी ठीक से नहीं बोल पाते।
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फिल्म में गृह मंत्री जब चिट्टी की अवतार से तुलना करते हैं तो बहुत बचकाना लगता है। उससे भी बचकाना है रोबोट नीला और चिट्टी का प्रेम! जरा सोचिये जिस देश में इंसानों को धर्म, जाति आदि के आधार पर प्रेम नहीं करने दिया जाता, उसी देश में डॉ वशीकरन अपने रोबोट्स को साथ-साथ रहने के लिए प्रेरित करते हैं !
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फिर हमारे यहां हाल के सालों में वैज्ञानिक रिसर्च की फंडिंग में करीब 50 फीसदी कटौती की गयी है। ऐसे में सभी कम्प्यूटरों और वैज्ञानिक उपकरणों से लैस वैन्स बहुत आउट ऑफ प्लेस लगती हैं। डॉ पक्षीराजन की आत्मा जब डॉ वशीकरन में प्रवेश कर जाती है तो वह भी हास्यास्पद लगता है। हालांकि इसके विजुअल्स प्रभावशाली हैं। ऐसे ही कुछ विजुअल्स फिल्म के चंद अच्छे पहलू हैं, वर्ना ये फिल्म साई-फाई के तौर पर उबाऊ और अतार्किक है और पूरी तरह से निराश करती है।
अगर आप कुछ अच्छे 3-डी इफेक्ट्स का लुत्फ लेना चाहते हैं तो फिल्म देखें वर्ना ये फिल्म आपके पैसे की वैसी ही बर्बादी साबित होगी जैसा कि ये फिल्म प्रोड्यूसर के पैसे की बर्बादी है।
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