बॉलीवुड फिल्मों के निर्देशकों में दिल्ली की सर्दियों को लेकर एक खास आकर्षण रहा है। कभी-कभी यह ‘दिल्ली की सर्दी..’ जैसे फूहड़ गानों में भी झलकता है। लेकिन अक्सर ऐसा नहीं होता कि वे दिल्ली के उस रहस्यपूर्ण माहौल को उकेर पायें जो सर्दियों की धुंध (अब धुल भरी धुंध) में इस शहर पर तारी होता है। ‘अक्टूबर’ में शूजित सरकार ने बहुत खूबसूरती से इस माहौल को चित्रित किया है।
एक हल्की सी कहानी को लेकर फिल्म बनाना आसान काम नहीं है। एक फाइव स्टार होटल में होटल मैनेजमेंट की इंटर्नशिप करने वाला छात्रों का एक समूह जी तोड़ मेहनत करता है। उनमें से एक शिउली अय्यर एक हादसे में कोमा में चली जाती है। उसका एक दोस्त डैन, जो हादसे के वक्त मौजूद नहीं था, अस्पताल में उसे देखने जाता है। वह वहां पहले तो एक दोस्त का फर्ज समझ कर, फिर इस उत्सुकता में कि हादसे से पहले वह उसके बारे में क्यों पूछ रही थी, और फिर चिंता में उसके पास जाता है। और फिर यही चिंता डैन के लिए शिउली की सेहत में सुधार की उम्मीद का जूनून बन जाती है। फिर यही जूनून शक्ल ले लेता है एक खूबसूरत और बेहद खास लगाव का।
जाहिर है कि यह फिल्म ‘डैन’ (वरुण धवन) की कहानी है, उसी की फिल्म है। एक लापरवाह, गुस्सा दिलाने वाला, चिड़चिड़ा नौजवान, जो धीरे-धीरे एक गहरे जज्बाती और परवाह करने वाले शख्स में तब्दील होता है, जिसके रोल में वरुण धवन ने काबिले तारीफ काम किया है। बंदिता संधू लगभग सारी फिल्म में या तो कोमा में रही हैं या फिर मूक और अपंग हालत में। लेकिन महज अपनी आंखों की हरकत से वे दिल में कहीं गहरे छू जाती हैं, खासकर जब डैन उसे आखिरी बार बिस्तर पर छोड़ कर जाता है अगले दिन फिर आने के लिए। लेकिन, शिउली नहीं चाहती कि वो जाए। उसकी आंखों का वह भाव सौ शब्द कह जाता है।
लेकिन यह फिल्म दरअसल स्क्रीनप्ले लेखक जूही त्रिवेदी और निर्देशक शूजित सरकार की है। संवाद छोटे, सटीक और भावपूर्ण हैं, कहीं-कहीं हास्य का पुट लिए, कोई शोर शराबा नहीं। खामोशी की कद्र भी है और परवाह भी, जो हिंदी फिल्मों में अमूमन नहीं दिखाई देती। निर्देशक ने बहुत नजाकत से लगभग चेखोवियन रूमानी माहौल की रचना की है, जिसमें एक आसान सा सवाल इस नौजवान का पीछा करता रहता है कि हादसे से फौरन पहले वह लड़की मेरे बारे में क्यों पूछ रही थी? शूजित सरकार ने फिल्म का कोमल ताना बाना बुनने के लिए क्लोज अप का बेहतरीन इस्तेमाल किया है, जिसमें आप हरसिंगार के फूलों की खुशबू लगभग महसूस कर सकते हैं। उम्मीद, लगाव और जिंदगी के एक महीन धागे के अलावा कहानी में ऐसा कुछ नहीं है, जो किरदारों को साथ बांध कर रख सके। शिउली की दुख और चिंताभरे मौन में डूबी मां की भूमिका में गीतांजलि राव भी प्रभावशाली रही हैं।
दिल्ली शहर के छोटे-छोटे पहलू लगभग लयात्मक तरीके से फिल्माए गए हैं, जैसे शहर का बदलता मौसम, झड़े हुए पत्तों से भरी सड़कें और घास के मैदान, परिंदे, फूल (एक पूरे शॉट में फूलों से भरा बोगन वेलिया नजर आता है, जिसमें से फूल हल्की हवा और बारिश में झड़ रहे हैं), और बेशक हरसिंगार के फूल जो शिउली को इतने पसंद हैं कि वह अक्टूबर आने का इंतजार करती है, ताकि वो हरसिंगार के फूलों को तरतीब से चुन कर अपने कमरे में रख सके।
फिल्म धीरे-धीरे आगे बढ़ती है, जो शायद कमर्शियल हिंदी फिल्म के दर्शकों को बोझिल लगे। लेकिन, फिल्म की रफ्तार को भी बहुत कोमलता से हैंडल किया गया है, ताकि नायक के भावनात्मक सफर को दर्शाया जा सके। एक छोटे से एहसास से कि वो लड़की शायद उसके लिए महज एक दोस्त से कहीं ज्यादा हो सकती थी, उस असलियत तक जब वह वाकई उस लड़की के वजूद के लिए बहुत अहम बन जाता है।
‘बदलापुर’ और हाल में आई कॉमेडी फिल्मों के जरिये भी वरुण धवन बेहतरीन अदाकारी का सुबूत पहले ही दे चुके हैं। इस फिल्म में भी वे एक संवेदनशील अदाकार के तौर पर उभरे हैं। बहरहाल, उन्हें अपनी आवाज और संवादों पर अभी और ज्यादा मेहनत करने की जरुरत है। बनिता संधू को एक खास डेब्यू रोल मिला है और वो अपने लगभग खामोश किरदार के लिए जरूर याद की जाएंगी। उनकी आंखें ही पूरी फिल्म में बात करती हैं।
लेकिन, इन किरदारों से परे, यह फिल्म आपको खुद अपने उन आधे-अधूरे, छूटे हुए रिश्तों को याद करने पर मजबूर कर देती है, जो शायद हमारी जिंदगी में कुछ खास, कुछ अलग अस्तित्व रख सकते थे।
‘अक्टूबर’ एक आम कमर्शियल फिल्म तो नहीं है, ना ही इसमें नाच-गाना और आम रोमांस की कहानी ही है। लेकिन यह फिल्म दिल को कहीं गहरे तक छू जाती है, लगभग उस गीत की तरह जिसे आप नहीं कहते कि वह कभी खत्म हो। निश्चित तौर पर ‘अक्टूबर’ एक देखने लायक फिल्म है।
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