एक शांत सौम्य शख्सियत जो दिल्ली से बंबई गया था अभिनेता बनने और बन बैठा एक ऐसा मधुर गहरा स्वर, जिसके साये में आज भी कई फ़िल्मी गायक अपनी आवाज़ के आयाम तलाशते हैं। मुकेशचन्द्र माथुर उर्फ़ मुकेश ही वो आवाज़ थे। आज के शोर-शराबे और मार्केटिंग की चमक दमक से भरे फ़िल्मी संगीत की दुनिया में मुकेश का मद्धम स्वर न सिर्फ हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग की याद दिलाता रहता है, बल्कि वो उन तमाम गायकों के लिए एक प्रेरणा के स्रोत भी हैं जो खुद को मार्केटिंग में कमज़ोर पाते हैं लेकिन सुर में मज़बूत।
1941 में मुकेश ने बतौर अभिनेता अपने करियर की शुरुआत की थी फिल्म ‘निर्दोष’ से, जिसमें उन्होंने एक गाना भी गाया था। हालांकि मुकेश गायक बनने बंबई नहीं आये थे, न ही बतौर गायक उनकी कोई औपचारिक ट्रेनिंग ही हुयी थी। लेकिन जब उनके दूर के रिश्तेदार अभिनेता मोतीलाल ने उन्हें एक शादी में गाते सुना, तो उन्हें अंदाज़ा हो गया था कि इस आवाज़ में कई संभावनाएं छिपी हैं। मोतीलाल ही उन्हें बंबई लेकर आये और उन्हें पंडित जगन्नाथ प्रसाद के संरक्षण में संगीत के प्रशिक्षण का इंतज़ाम भी करवाया।
लेकिन मुकेश हमेशा एक ऐसे गायक रहे जो पेशेवर गायकों की कतार में सबसे आख़िरी माने जाते रहे। मशहूर गायक मन्ना डे के लिए तो वो हमेशा एक शौकिया गायक ही रहे, जबकि संगीतकार सलिल चौधरी उन्हें एक ऐसा गायक मानते रहे जिसकी आवाज़ में अलग-अलग मूड के गायन को एकसाथ पिरोने की क्षमता थी।
बतौर गायक भी मुकेश को काफी संघर्ष का सामना करना पड़ा क्योंकि उनके सामने थे मोहम्मद रफ़ी और तलत महमूद जैसे मंझे हुए गायक। एक किस्सा बहुत मशहूर है कि बिमल रॉय के निर्देशन में बन रही फिल्म ‘यहूदी’ का एक रोमांटिक गीत था ‘ये मेरा दीवानापन है..’, जिसे बिमल रॉय मोहम्मद रफ़ी से गवाना चाहते थे और फिल्म के हीरो दिलीप कुमार चाहते थे कि तलत महमूद इसे गायें, लेकिन फिल्म के संगीतकार शंकर-जय किशन, जिनसे मुकेश की काफ़ी दोस्ती हो चुकी थी, चाहते थे कि मुकेश ही ये गीत गायें। काफी बहस-मुबाहिसे के बाद तय हुआ कि दिलीप कुमार पहले मुकेश की आवाज़ में ये गाना सुनेंगे फिर तय होगा कि ये गीत आखिर कौन गायेगा।
दिन तय हो गया। शंकर-जय किशन ने दिलीप कुमार को लगभग शाम का वक्त दिया गाना सुनने के लिए क्योंकि वे अच्छी तरह जानते थे कि मुकेश सुर से ज़रा हट कर गाते हैं और उन्हें गाने के लिए अभ्यास की ज़रूरत होती है। तो, सुबह से प्रैक्टिस शुरू हुयी और आखिर शाम के वक्त जब मुकेश ने वो गाना दिलीप कुमार के सामने गाया तो दिलीप कुमार भी प्रभावित हो गए। नतीजतन हमारे पास यहूदी का वो कालजयी गाना है, जिसे हर पीढ़ी का प्रेमी एक बार ज़रूर गुनगुनाता है - ‘ये मेरा दीवानापन है, या मुहब्बत का सुरूर, तू ना पहचाने तो ये है तेरी नज़रों का कुसूर..”
बहुत से संगीत समीक्षक उनकी आवाज़ में हलके से नाक से आते सुर और कभी-कभार सुर से बाहर लहरा जाती आवाज़ की आलोचना करते थे। वे करते रहे। लेकिन खामियों के बावजूद ये वो आवाज़ है जो दिल को छू जाती है, वक्त और मौका चाहे जो हो। संगीतकार कल्याण जी से जब मुकेश की खामियों पर बात की गयी तो उनका जवाब था - “जो भी चीज़ दिल से निकलती है, वो दिल को छू ही जाती है। मुकेश का गाना भी कुछ ऐसा ही था। यही वजह है कि उनकी सीधी-सरल आवाज़ अपनी तथाकथित कमजोरियों के बावजूद इतना गहरे असर करती है।”
ये सच है कि मुकेश का भलापन, भोलापन और एक ख़ास उदासी जिसे आप संजीदगी भी कह सकते हैं, उनकी आवाज़ में झलकती है, दिल को कहीं गहरे कचोटती है। वे अपनी आलोचना का भी बुरा नहीं मानते थे, बल्कि लता मंगेशकर के साथ कई लाइव शोज़ में उन्होंने मज़ाक भी किया था कि “जानते हैं लता को इतना बेहतरीन गायक क्यों माना जाता है? क्योंकि उन्हें मेरे जैसे बेसुरे गायक का साथ जो मिला है!”
केएल सहगल के मुकेश इतने बड़े फैन थे कि शुरूआती गानों में वो उनकी ही नक़ल करते रहे और अपना एक गाना ‘दिल जलता है तो जलने दे..’ इतना अच्छा गाया कि केएल सहगल ने भी उस गाने को सुन कर कहा, “अजीब बात है, मुझे याद नहीं पड़ता कि ये गाना मैंने कब गाया।”
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उनकी आवाज़ राज कपूर के फ़िल्मी अवतार ‘राजू’ को मानो चरितार्थ करती थी - भोला, भला, मस्त और संजीदा सा किरदार जो यथार्थ की छल-कपट भरी दुनिया में एक अजनबी है, लेकिन इसी दुनिया में वो अपनी एक ख़ास जगह बनाना चाहता है और बनाता भी है। राज कपूर की लगभग सभी फिल्मों के गाने उन्होंने गाये। राजकपूर का किरदार और उनकी आवाज़ दोनों इतने घुल-मिल गए थे कि जब राज कपूर और मुकेश रूस के दौरे पर गए तो वहां के लोगों के लिए ये मानना मुश्किल हो गया था कि ‘आवारा हूं...’ गीत राज कपूर ने नहीं गाया है। मुकेश की अचानक मृत्यु से सन्न राज कपूर के मुंह से यही निकला था -“आज मैंने अपनी आवाज़ को खो दिया!”
लेकिन आज भी वो भली और गहरी सी आवाज़ कहीं दूर बजती हुयी हमें अपने इंसानी फ़र्ज़, प्यार और त्याग से बंधे इंसानी रिश्तों की ख़ूबसूरती की याद दिलाती रहती है। आखिर जीने के मानी तो यही हैं न...‘रिश्ता दिल से दिल के एतबार का/ जिंदा है इसी से नाम प्यार का/ के मर के भी किसी को याद आएंगे/ किसी के आंसुओं में मुस्कुराएंगे/ कहेगा फूल हर काली से बार-बार/ जीना इसी का नाम है...’
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