इसी 15 मई को माधुरी ने अपना एक और जन्मदिन मनाया। यकीन नहीं होता कि माधुरी दीक्षित 55 की हो गईं! दरअसल, माधुरी के व्यक्तित्व का यही एक अद्भुत आश्चर्य है जिसमें वर्षों से कोई बदलाव नहीं आया। मुझे याद है जब पहली बार उसने मिला था। काफी क्षुब्ध थीं मुझसे। हमारे कॉमन फ्रेंड फिल्म निर्देशक प्रकाश झा ने पहले ही आगाह कर दिया था कि माधुरी मुझे लेकर हमलावर मूड में हैं! प्रकाश उन दिनों उनके साथ ‘मृत्युदंड’ बना रहे थे।
लेकिन बर्फ कब पिघल गई, पता ही नहीं चला… माधुरी ने कबूल किया- उनके ‘चोली के पीछे गीत’ के बारे में मैंने जो कुछ लिखा था, उससे वह दुखी थीं। सलमान खान-अरुणा ईरानी के साथ एक बहुत ही मजेदार हालांकि मृत्यु के दृश्य के शॉट से पहले उन्होंने जो कुछ कहा, काफी कुछ साफ हो गया था। अजीब बात थी कि सीन के शूट के दौरान जूनियर कलाकार यूं तो सिसकते, फुसफुसाकर बात करते लेकिन निर्देशक के ‘कट’ कहते ही हंसी के जबरदस्त ठहाके लगते।
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यह मुलाकात एक कारण से यादगार बन गई। हुआ यूं कि उनके मेकअप रूम में जब हमारा इंटरव्यू पूरा हुआ तो हमने पाया कि दरवाजा बाहर से बंद था। अजीब-सी स्थिति थी…। बहुत देर खटखटाने और शोर मचाने के बाद आखिर किसी ने सुना। सलमान खान की मुस्कान और दोनों कानों के कोरों की लाली बता रही थी कि शरारत हो गई। इससे पहले कि माधुरी अपने इस को-स्टार से टकरातीं, मैं मुस्कुराते हुए वहां से खिसक लिया। एक सरप्राइज की तरह सामने आई उनकी शादी में मैं सबसे पहले बधाई देने वालों में शामिल था।
माधुरी कभी ऐसा फील नहीं करातीं कि वह बहुत खुश हैं। उन्हीं के अनुसार कि हृदय के इस डॉक्टर ने उनके दिल के साथ क्या किया, उसके बाद मेरे लिए यह तय करना मुश्किल था कि माधुरी भी शर्मिला टैगोर की तरह शादी के बाद अपना फिल्मी कॅरियर उसी तरह सफल रख पाएंगी! आग लगाने वाले अपने गीतों और नृत्यों के बावजूद माधुरी का कॅरियर कभी सेल्यूलाइड सफलता की गारंटी नहीं रहा। हालांकि दर्शकों के लिए वह हमेशा स्क्रीन की रानी रहीं जो श्रीदवेी के बाद की पीढ़ी में अपना मुकाम बनाने वाली पहली अभिनेत्री थीं।
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दुर्भाग्य से भूमिकाओं के चयन के मामले में यहां हमेशा सवाल रहे! उनसे हमेशा ‘और ज्यादा’ की अपेक्षा रही। माधुरी ने संजय लीला भंसाली की ‘खामोशी: द न्यूजिकल’ में मूक-बधिर एनी का किरदार निभाने का प्रस्ताव इसलिए ठुकरा दिया कि उस किरदार के प्रति वह आश्वस्त नहीं थीं।
सवाल है कि आज की इस मधुबाला के कॅरियर में वह ‘मुगले आजम’ कहां है? मुझे लगता है कि जरूर कहीं रास्ते में होगा। हालांकि राजकुमार संतोषी की ‘लज्जा’ और ‘पुकार’ ने माधुरी को उस दौर की अन्य स्क्रीन क्वींस के बीच अलग से चमकने का अवसर जरूर दिया। लेकिन यह संजय लीला भंसाली की ‘देवदास’ ही थी जिसने माधुरी दीक्षित को अमर कर दिया। उन्हें मूक और सिर्फ खोने वाली चंद्रमुखी की भूमिका मिली जो देवदास को न सिर्फ ‘पालती’ है बल्कि उसे बेइंतिहा प्यार करती है। इस कदर प्यार करती है कि यह जानने के बाद कि वह किसी और महिला के प्यार में पागल है, उसे उसके लिये छोड़ भी देती है। माधुरी ने भी इस करेक्टर को सपने की तरह जिया। उसी अनुरूप कपड़े पहने और डूबकर डांस किया। सच कहूं तो माधुरी ने मार डाला… मार ही डाला…।
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संजय लीला भंसाली को भी याद नहीं होगा कि वह कब से उनके प्रशंसक हैं। यादों में डूबकर उनके बारे में बड़बड़ाने की हद तक! हालांकि दीवानगी की हद तक माधुरी दीक्षित की चाहत में डूबे मकबूल फिदा हुसैन उनके लिए जो काम ‘गजगामिनी’ में नहीं कर पाए, वह काम भंसाली ने ‘देवदास’ में कर दिखाया। मुझे याद है, देवदास के सेट पर माधुरी कितनी अलग-थलग दिख रही थीं। जहां ऐश्वर्या सबसे घुली-मिली, हंसती-खिलखिलाती, इधर-उधर थिरकती रहतीं, माधुरी कहीं खोई सी अकेली बैठी रहतीं। याद है जब मैं विनम्र मुस्कान के साथ उनके पास गया और पूछा- क्या मैं उनके बगल में बैठ सकता हूं? ‘क्यों नहीं, वहां कोई और बैठा भी तो नहीं है!’- माधुरी का जवाब था।
मैं शायद कभी नहीं समझ पाऊंगा कि यह जवाब व्यंग्य मिश्रित था या कि महज शिष्ट निमंत्रण! संभव है, माधुरी सेट पर किसी के साथ बैठना पसंद न करती रही हों! इतना तो तय है कि वह हमेशा एक दूरी बनाए रखना पसंद करती हैं। बहुत ज्यादा घुलना-मिलना या किसी का ज्यादा ही अंतरंग व्यवहार उन्हें अच्छा नहीं लगता।
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मैं उनके इस प्रोफेशनलिज्म का सम्मान करता हूं। लेकिन एक सवाल भी है, कि बॉलीवुड में रहते हुए उन्होंने कुछ दोस्त तो बनाए ही होंगे? जवाब है- ना! वह हमेशा अलग ही थीं। ‘यार’ नहीं, सिर्फ स्टार! मुझे आज भी लगता है कि बतौर कलाकार उन्हें अब भी लंबा रास्ता तय करना है। माधुरी ने तमाम हिट फिल्में दीं। लेकिन क्या किसी ने कभी गौर किया कि उनकी सबसे ज्यादा सफल फिल्मों में भी उन्हें किस तरह प्रस्तुत किया गया है? भंसाली की ‘देवदास’ और प्रकाश झा की ‘मृत्युदंड’ को छोड़कर, उनके साथ काम करने वाले ज्यादातर निर्देशकों ने उनके चेहरे की सुंदरता को ही पकड़े रखा है।
माधुरी को महज एक पुतला नहीं, दिवा होना था। उन्हें हमेशा लगता रहा कि उन्होंने अपनी भूमिकाएं अच्छे से चुनी हैं। लेकिन ऐसा था नहीं। भंसाली की ‘खामोशी: द म्यूजिकल’ को महज इस आधार पर ठुकराना कि वह एक नवोदित निर्देशक थे, सही फैसला नहीं था। उन्होंने उन्हें घंटों-दिनों तक इंतजार कराया। यहां तक कि उसे एक ‘हेलो’ कहने के लिए अपने मेकअप रूम का दरवाजा तक नहीं खोला। और अंत में ‘ना’ बोल दिया! बहुत बाद में मैंने उनसे इसका कारण पूछा। माधुरी ने स्वीकार किया- ‘मैं एक बहरे-गूंगे मां-बाप के साथ एक सामान्य लड़की के किरदार का तालमेल ही नहीं बिठा पा रही थी। हां, सही में…। इंद्र कुमार की ‘दिल’ की लड़की या ‘बेटा’ में बहू के किरदार से तालमेल बिठाना ज्यादा आसान था।’
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विधु विनोद चोपड़ा की ‘1942-ए लव स्टोरी’ भी माधुरी के हाथ से इसलिए निकल गई कि वहां पैसा, यानी भुगतान आड़े आ गया। मुझे लगता है कि पैसा उनके लिए हमेशा एक महत्वपूर्ण कारक रहा है। इसमें कोई बुराई भी नहीं। लेकिन मेरा मानना है कि माधुरी को अभी अपना सर्वश्रेष्ठ देना बाकी है। मैं माधुरी द्वारा उनकी वाली ‘मदर इंडिया’ को पर्दे पर उतरते देखने का इंतजार कर रहा हूं या कम-से-कम उनकी अपनी वाली ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ तो जरूर ही।
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