कुंदन शाह नहीं रहे। बहुत कम बजट में बनायी गयी उनकी फिल्म ‘जाने भी दो यारो’ इस बात की पुख्ता मिसाल है कि अगर आप रचनात्मक तौर पर मजबूत हैं तो आप कम संसाधनों में भी बेहतरीन रचना कर सकते हैं। माध्यम चाहे कोई भी हो- नाटक, सिनेमा या पेंटिंग- यह अहम नहीं है, अहम बात है कि आप क्या और कैसे जाहिर करते हैं।
अपनी एक ही फिल्म से कुंदन शाह दर्शकों के करीब हो गए थे। यहां ‘प्रिय’ नहीं, ‘करीब’ कहा जा रहा है। इस फिल्म में जितने सूक्ष्म तरीके से हंसी-हंसी में वे आम आदमी की निजी दुनिया में प्रवेश करते हैं, वह अपने आप में अनोखा है। यह शायद किशोर कुमार की ‘हाफ टिकट’ के बाद ऐसी पहली कॉमेडी फिल्म है जिसमें ‘नॉन-सेन्स’ का इस्तेमाल बखूबी किया गया है। कुंदन शाह ने नॉन-सेंस के जरिये जो गंभीर वक्तव्य दिया है वह गंभीर राजनीतिक-सामाजिक टिप्पणी से भी ज्यादा असरदार है।
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कुंदन शाह अपनी एक और फिल्म ‘कभी हां, कभी ना’ और टीवी सीरियल ‘नुक्कड़’ के लिए भी जाने जाते हैं। 1993 में रिलीज हुयी ‘कभी हां, कभी ना’ न सिर्फ शाहरुख खान के करियर में एक अहम फिल्म साबित हुयी, बल्कि अपनी मीठी सी प्रेम कहानी के लिए बहुत मशहूर हुई। कुंदन शाह की ये खासियत थी कि वे जिंदगी की मधुरता को यथार्थ से अलग नहीं करते थे, बल्कि असलियत की कड़वाहट के हाशिये पर जो मीठापन हमेशा साथ-साथ रहता है उसे खूबसूरती से उभारते थे। इसीलिए उनके किरदार इतने अपने जैसे लगते हैं। ‘कभी हां, कभी ना’ का सुनील जैसा मध्यवर्गीय लड़का दरअसल भारत के किसी भी छोटे से कस्बे में मिल जाएगा। वह लापरवाह है, झूठा है, लेकिन प्रेम में वह उदात्त और एक बेहतर इंसान बनता है।
1986-87 में कुंदन शाह का सीरियल ‘नुक्कड़’ टीवी पर बहुत लोकप्रिय हुआ था। इसकी भी खासियत यही थी कि इसके किरदार असल जिंदगी के बहुत करीब थे, जो अपने सपनों-ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए जी-जान लगा देते हैं और जब उनके सपने टूटते हैं तो वे उम्मीद का दामन नहीं छोड़ते और एक बेहतर इंसान के तौर पर और मजबूत होते जाते हैं। जीवन की तमाम मुश्किलों और बेबसी के बीच वे अपनी उम्मीद, सपनों और मूल्यों पर कायम रहते हैं। यही वजह रही कि कुंदन शाह की फिल्में और टीवी सीरियल कहानी और किरदार से परे जाकर हमसे एक गहरा ताल्लुक बनाते रहे।
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बड़े बजट की चमक-दमक से भरी फिल्मों के बीच भारतीय समाज में आम आदमी की संवेदनाओं, मजबूरियों और उम्मीदों पर बनायीं गयी कुंदन शाह की फिल्मों की आवाज हमेशा हमारे जेहन में गूंजती रहेगी, क्योंकि उनकी आवाज में हमारी आवाज है।
‘जाने भी दो यारो’ बनाते वक्त कुंदन एक युवा निर्देशक थे और नसीरुद्दीन शाह और रवि बासवानी को भी एफटीआईआई से निकले कुछ ही बरस हुए थे। पूरी टीम के लिए यह फिल्म एक निजी अनुभव था, कुछ किरदारों के नाम भी टीम के सदस्यों के नाम पर रखे गए, कुछ के नाम और किरदार असल लोगों से भी प्रभावित रहे।
1983 में जब यह फिल्म रिलीज हुयी तब बॉक्स ऑफिस पर इतनी सफल नहीं हुयी थी। लेकिन धीरे-धीरे इसे एक ‘कालजयी’ फिल्म का दर्जा मिल गया। अब हिंदी सिनेमा में कोई भी ‘गंभीर’ कॉमेडी अगर बनती है (अमूमन तो बनती ही नहीं) तो उसकी तुलना ‘जाने भी दो यारो’ से जरूर की जाती है और आगे भी की जाती रहेगी।
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दरअसल, कुंदन शाह उन चुनिंदा फिल्म निर्देशकों में से थे जो अपने काम के जरिये समाज और राजनीति पर चढ़ी नकली परतें उतारते रहे। शोर और आक्रामकता के इस माहौल में ऐसे रचनाकारों और फिल्मकारों की सख्त जरूरत है जो मनोरंजन के जरिये समाज को आइना दिखाते हैं।
बड़े बजट की चमक-दमक से भरी फिल्मों के बीच भारतीय समाज में आम आदमी की संवेदनाओं, मजबूरियों और उम्मीदों पर बनायीं गयी कुंदन शाह की फिल्मों की आवाज हमेशा हमारे जेहन में गूंजती रहेगी, क्योंकि उनकी आवाज में हमारी आवाज है।
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