पूरी दुनिया गांधी मार्ग के जरिए रास्ता तलाश रही है। लेकिन, अपने ही देश में लोकतंत्र पर जिस तरह से खतरे बढ़ते जा रहे हैं, उसमें महात्मा गांधी के संदेश पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। हमने अपने साप्ताहिक समाचार पत्र संडे नवजीवन केे दो अंक गांधी जी पर केंद्रित करने का निर्णय लिया। इसी तरह नवजीवन वेबसाइट भी अगले दो सप्ताह तक गांधी जी के विचारों, उनके काम और गांधी जी के मूल्यों से संबंधित लेखों को प्रस्तुत करेगी। इस अंक में हम प्रख्यात फिल्म आलोचक अजय ब्रह्मात्मज का लेख प्रकाशित कर रहे हैं, जिसमें उन्होंने गांधी पर बनी फिल्मों का जिक्र करते हुए बॉलीवुड और सरकार द्वारा 150वीं जयंती वर्ष पर गांधी को भुला देने का मुद्दा उठाया है।
मोदी पर एक के बाद एक फिल्म बनाने को आतुर फिल्म इंडस्ट्री को सुधि नहीं है कि यह महात्मा गांधी की 150वीं जयंती का वर्ष है। कायदे से भारत सरकार को पहल करनी चाहिए थी। उनकी 150वीं जयंती के अवसर पर विशेष फीचर फिल्म या डॉक्यूमेंट्री के निर्माण की व्यवस्था करनी चाहिए थी। ऐसा कुछ नहीं हो रहा है।
Published: 29 Sep 2019, 8:59 PM IST
हालांकि, निजी प्रयासों और चंद संस्थाओं के सहयोग से देश में कहीं-कहीं गांधी से संबंधित फिल्मों के महोत्सव हो रहे हैं। उन्हें और उनकी फिल्मों को याद किया जा रहा है। सरकार की तरफ से ऐसा कोई खास प्रयास नहीं दिख रहा है। कोई घोषणा भी नहीं है। होना तो यह भी चाहिए कि गोवा में आयोजित इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में गांधी से संबंधित फिल्मों का विशेष प्रदर्शन हो। देश-दुनिया में उनकी फिल्मों की चर्चा हो। इस सरकारी और जन उदासी के बावजूद गांधी प्रासंगिक हैं और बने रहेंगे।
Published: 29 Sep 2019, 8:59 PM IST
फिल्मों और गांधी की बात करें, तो यह सर्वविदित है कि महात्मा गांधी की फिल्मों में कोई रुचि नहीं थी। वह फिल्मों को समाज के लिए अनावश्यक मानते थे। 1928 में इंडियन सिनेमेटोग्राफ कमेटी की भेजी प्रश्नावली का दो टूक जवाब देते हुए उन्होंने लिखा था, ‘मैंने कभी सिनेमा देखा ही नहीं है, लेकिन किसी बाहरी का भी इसने जितना अहित किया है और कर रहा है, वह प्रत्यक्ष है, यदि इसने किसी का भला किसी रूप में किया है, तो इसका प्रमाण मिलना बाकी है।’
उन्होंने अन्य दो प्रसंगों में भी सिनेमा के बारे में अपनी राय रखी। ‘हरिजन’ पत्रिका के एक लेख में उनकी राय थी, ‘सिनेमा-फिल्म ज्यादातर बुरे होते हैं।’ उनकी ऐसी प्रतिक्रियाओं से आहत और व्याकुल होकर ख्वाजा अहमद अब्बास ने ‘फिल्म इंडिया’ पत्रिका के अक्टूबर,1939 के अंक में उनके नाम एक खुला पत्र लिखा। 80 साल पहले लिखे इस पत्र में अब्बास ने उनसे आग्रह किया था, “एक हाल के बयान में आपने सिनेमा को जुआ, सट्टा, घुड़दौड़ आदि जैसी बुराइयों के साथ रखा है, जिससे आप जाति बहिष्कृत होने के डर से दूर रहते हैं। यह बयान किसी और ने दिए होते, तो इसमें चिंतित होने की जरूरत नहीं थी। आखिर अपनी-अपनी पसंद का मामला है... बापू आप एक महान आत्मा हैं। आपके हृदय में पूर्वाग्रहों के लिए कोई जगह नहीं है। हमारे छोटे से खिलौने- सिनेमा पर जो इतना अनुपयोगी नहीं है, जितना दिखता है, थोड़ा ध्यान दें और उदारतापूर्ण मुस्कान के साथ इसे अपना आशीर्वाद दें।’ अब्बास के पत्र की फोटो कॉपी मुंबई स्थित भारतीय सिनेमा के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी गई है। इस संग्रहालय में पूरा एक फ्लोर गांधी और फिल्मों को समर्पित किया है।
Published: 29 Sep 2019, 8:59 PM IST
भारतीय सिनेमा और गांधी
सिनेमा से अरुचि की महात्मा गांधी की स्पष्ट घोषणा के बावजूद सिनेमा ने उनमें रुचि ली। राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के नेतृत्व की राजनीतिक सक्रियता के अपने प्रभाव की वजह से वह फिल्मकारों के प्रिय रहे। उनका करिश्माई व्यक्तित्व आकर्षित करता रहा। यही वजह है कि ब्रिटिश सरकार ने भी उनके डॉक्यूमेंटेशन में कोताही नहीं की। उनकी पहली चलती-फिरती तस्वीर ब्रिटिश पाथे की ‘न्यूजरील’ में मिलती है। इसमें उन्हें ‘कुख्यात आंदोलनकारी’ कहा गया है। तब ब्रिटिश सरकार के लिए वह ‘कुख्यात’ और ‘आंदोलनकारी’ ही थे, लेकिन भारतीय फिल्मकारों की निगाह में उनका दर्जा अलग था। उनके लिए गांधी एक उम्मीद थे।
ब्रिटिश सरकार फिल्मों के व्यापक असर से वाकिफ थी। सेंसरशिप की सख्ती थी। यही वजह है कि1921 में प्रदर्शित मूक फिल्म ‘भक्तविदुर’ को प्रतिबंधित करते हुए उन्होंने लिखा था, ‘यह विदुर नहीं है। यह गांधी है और हम इसकी अनुमति नहीं देंगे।’ इस फिल्म में द्वारकानाथ संपत ने विदुर की भूमिका निभाई थी। उन्होंने बाद में एक संस्मरण में लिखा था कि दर्शकों को कुछ नहीं बताया गया था कि विदुर में गांधीजी की छवि है। लेकिन ब्रिटिश अधिकारियों ने भांप लिया। बाद के दिनों में वी. शांताराम को भी ब्रिटिश अधिकारियों के आदेश पर अपनी फिल्म ‘महात्मा’ (1935) का शीर्षक बदल कर ‘धर्मात्मा’ करना पड़ा था। आजादी के पहले की कुछ और फिल्मों को भी सेंसर का कोपभाजन बनना पड़ा।
Published: 29 Sep 2019, 8:59 PM IST
महात्मा गांधी के कद्दावर व्यक्तित्व और कार्यों को किसी एक फिल्म में समेट पाना किसी भी फिल्मकार के लिए नामुमकिन काम है। फिर भी उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के पहलुओं को फिल्मकारों ने जब-तब फिल्मों में उकेरने की कोशिश की है। 1982 में रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’ फिल्म आई थी। भारत सरकार के सहयोग से बनी ‘गांधी’ सर्वाधिक चर्चित और देखी गई फिल्म है। एटनबरो की ‘गांधी’ के निर्माण की कहानी रोचक है। इस फिल्म के निर्माण के पहले पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एटनबरो को सलाह दी थी कि गांधीजी को देवता की तरह न पेश करें। नेहरू की हिदायत और एटनबरो की सावधानी के बावजूद दर्शकों पर ‘गांधी’ फिल्म का असर किसी देवता से कम नहीं रहा।
रिचर्ड एटनबरो के पहले एक इतालवी फिल्मकार ने भी उनकी बायोपिक की तैयारी की थी। पंडित नेहरू से उनकी बातचीत हो गई थी, लेकिन फिल्मकार की आकस्मिक मृत्यु से उनका सपना पूरा नहीं हुआ। रिचर्ड एटनबरो को भी गांधी के निर्माण और निर्देशन में अनेक दिक्कतें आईं। उन्हें नेहरू और भारत सरकार का भरपूर सहयोग मिला। भारत सरकार ने ‘गांधी’ के निर्माण में निवेश भी किया था, जिसकी आलोचना भी हुई।
Published: 29 Sep 2019, 8:59 PM IST
रिचर्ड एटनबरो की फिल्म में भी कमियां रेखांकित की गईं। फिर भी इस फिल्म ने पॉपुलर माध्यम से महात्मा गांधी को देश-दुनिया के दर्शकों के बीच पहुंचाया। उनके जीवन, संघर्ष और विजय से परिचित कराया। गौर करें कि आजादी और गांधी के देहांत के बाद के 34 सालों में किसी भारतीय फिल्मकार ने उन पर फिल्म बनाने की कभी गंभीर कोशिश नहीं की। राज्यसभा में पंडित नेहरू से इस बाबत पूछा गया था। इसके जवाब में पंडित नेहरू ने कहा था, “गांधी पर फिल्म बनाने की चुनौती मुश्किल है। कोई भी सरकारी विभाग इसे नहीं संभाल सकता। सरकार इस योग्य नहीं है और हमें इस काम के योग्य व्यक्ति नहीं मिला।”
बहरहाल ‘गांधी’ फिल्म ने भारतीय फिल्मकारों को जोश और विषय दिया। 1982 के बाद अनेक फिल्में आईं, जिनमें किसी न किसी रूप में गांधी दिखाई पड़ते हैं। वह कहीं चरित्र हैं, तो कहीं नायक। एक-दो फिल्मों में वह प्रति नायक की भूमिका में भी नजर आते हैं। अच्छी बात है कि उन्हें पवित्र आत्मा की तरह निरूपित करने की जबरन कोशिश नहीं की गई है। सरकार ने उन पर या उनसे प्रभावित फिल्मों के प्रति किसी प्रकार की सख्ती नहीं दिखाई।
Published: 29 Sep 2019, 8:59 PM IST
1982 के बाद महात्मा गांधी पर बनी 10 से अधिक फिल्मों में गांधी के व्यक्तित्व को अलग-अलग तरीके से समझने और व्यक्त करने का प्रयास दिखता है। कुछ फिल्मों में उनकी प्रासंगिकता और उपयोगिता पर भी विचार किया गया। ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’, ‘लगे रहो मुन्नाभाई’, ‘गांधी टु हिटलर’ और ‘रोड टु संगम’ जैसी फिल्मों में गांधी के विचारों और नैतिकता को आज के संदर्भ में पेश किया गया है। इनमें ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ ज्यादा लोकप्रिय साबित हुई। राजकुमार हीरानी ने ‘गांधीवाद’ को ‘गांधीगिरी’ शब्द दिया और गांधी दर्शन को युवा दर्शकों के बीच ले गए। फिल्म अध्येताओं ने आशुतोष गोवारिकर की ‘लगान’, ‘जोधा अकबर’ और ‘स्वदेश’ में प्रच्छन्न रूप से गांधी के विचारों को दृश्यों में बदलते देखा है।
गांधी पर आधारित तीन महत्वपूर्ण फिल्में
इन तीनों फिल्मों को एक साथ आगे-पीछे देखें, तो गांधी के संपूर्ण जीवन की झलक मिल जाती है।
Published: 29 Sep 2019, 8:59 PM IST
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: 29 Sep 2019, 8:59 PM IST