सिनेमा

IFFI 2019: बीजेपी के दखल से निरंतर गिरती गरिमा के चलते छोटे फेस्टिवल से भी कमतर साबित हुआ गोवा फिल्म फेस्टिवल

अफसोस की बात है कि गोवा में आयोजित 50वें इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया में देश के पहले पीएम पंडित जवाहरलाल नेहरू को याद ही नहीं किया गया। उनकी प्रेरणा से ही देश का पहला इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल 1952 में मुंबई में आयोजित हुआ था।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

गोवा में आयोजित अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह समाप्त हो गया है। सारे पुरस्कार बंट गए। प्रतिभाएं सम्मानित हो गयीं। फेस्टिवल के आयोजक अपने सरकारी दड़बों में लौट गए। फिल्मकार और कलाकार अपने सेट पर लौटकर ‘लाइट कैमरा एक्शन’ की अगली तैयारियों में लग गए। सत्ता और सरकार के करीबी अगले अनुष्ठान और समारोह की जुगाड़ में भिड़ गए। इस तरह देश के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का 50वां आयोजन संपन्न हो गया।

इस आयोजन की उपलब्धियों और कमियों की कोई चर्चा नहीं होगी। कभी होती भी नहीं है। हर आयोजन में कुछ कमियां बदस्तूर चलती रहती हैं। नौकरशाही और क्रिएटिविटी का द्वंद्व जारी रहता है। नतीजतन तमाम संसाधनों और सुविधाओं के बावजूद देश का प्रतिनिधि फिल्म फेस्टिवल इंटरनेशनल स्तर पर पृथक पहचान नहीं बना पा रहा है।

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यहां यह बता देना जरूरी है कि इफ्फी (इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया) एशिया का पहला फिल्म फेस्टिवल था। इसके बाद शुरू हुए एशियाई देशों के कुछ फेस्टिवल अपने अप्रोच और पारदर्शिता की वजह से खास मुकाम बना चुके हैं। दुनिया भर के फिल्मकार उन फेस्टिवल में अपनी फिल्मों के प्रीमियर के लिए आतुर रहते हैं। इसके विपरीत इफ्फी में भागीदारी में उनकी खास रुचि नहीं रहती। यहां तक कि इंडियन पैनोरमा में भी शामिल होने की कोई होड़ नहीं दिखती।

इसकी दो मुख्य वजहें हैं- एक तो प्रदर्शित फिल्म पर ऐसे फेस्टिवल का ठप्पा लग जाता है, जो बहुत महत्व नहीं रखता। दूसरे पैनोरमा के लिए जोड़-तोड़ और सिफारिश की जरूरत पड़ती है। पिछले कुछ सालों की फिल्मों की सूची देख लें तो अंदाजा हो जाएगा कि चुनी गई फिल्में उस साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्में तो हरगिज नहीं थीं। इस बार तो पैनोरमा की जूरी के अध्यक्ष प्रियदर्शन ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि युवा भारतीय फिल्मकारों की फिल्मों का स्तर पहले से नीचे आ गया है। पैनोरमा के लिए आई 300 से अधिक फिल्मों की प्रविष्टियों में से बेहतर का चुनाव करना मुश्किल काम रहा।

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सरकारी और गैर सरकारी आयोजनों की परंपरा रही है कि उसके जनक या प्रेरक व्यक्ति को साल दर साल याद किया जाता है। 50वें आयोजन में उनको याद करना तो फेस्टिवल का धर्म बनता था। अफसोस की बात है कि गोवा में आयोजित इस 50वें आयोजन में पंडित जवाहरलाल नेहरू को याद ही नहीं किया गया। उनकी प्रेरणा से ही 1952 में देश का पहला इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल मुंबई में आयोजित हुआ था। तब केवल 23 देशों की फिल्में शामिल हो पाई थीं। इस बार 76 देशों की फिल्में शामिल थीं।

बहरहाल न तो सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर, न ही उद्घाटन समारोह के मेजबान करण जौहर और न अमिताभ बच्चन और रजनीकांत को सुधि रही कि वे पंडित जवाहरलाल नेहरू का नाम याद कर लें। उन्हें धन्यवाद दें। नेहरू के प्रति वर्तमान सरकार की विरक्ति से हम सभी परिचित हैं। वे नेहरू के तमाम योगदानों का अवमूल्यन करने के साथ उसे मिटाने में लगे हैं। ऐसे में समझा जा सकता है कि नेहरू की स्मृति उनके लिए कैसे सहज होती?

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साल दर साल इफ्फी कवर कर रहे पत्रकारों की राय में इस बार का इंतजाम सबसे बुरा था। अव्यवस्था और कार्यक्रम संयोजन व संचालन का यह आलम था कि प्रतिभाओं को मालूम ही नहीं रहता था कि उन्हें कब, कहां और क्या करना है? क्यों तो पूछा ही नहीं जा सकता। यह खबर तो मीडिया में भी आई कि अमिताभ बच्चन जब कार्यक्रम से निकले तो उनका ड्राइवर लापता था। गंतव्य पर जाने के पहले उन्हें अपनी गाड़ी के पास कुछ देर इंतजार करना पड़ा।

एक और घटना में मुंबई से गई एक फिल्म डायरेक्टर को फिल्म की स्क्रीनिंग के समय बताया गया कि आपको प्रेस कॉन्फ्रेंस भी करना है। प्रोग्रामिंग के अधिकारियों की फिल्मी जानकारी पर भी संदेह होता है, क्योंकि पोपुलर और महत्वपूर्ण फिल्मों की स्क्रीनिंग देर रात के शो में करने का कोई तुक नहीं बनता। मालूम हुआ कि कम सीटों के स्क्रीन में चर्चित फिल्म का शो है और काका अकादमी की स्क्रीनिंग में सीटें खाली पड़ी हैं। फिल्मों के चुनाव पर भी सवाल उठाए गए।

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मास्टर क्लास और वर्कशॉप के लिए चुनी गयी प्रतिभाओं पर गौर करें तो हाल ही में चर्चित हुई अभिनेत्री को मास्टर क्लास के लिए बुला लेने का तर्क भी समझ के परे है। हिंदी फिल्मों की अभिनेत्री तापसी पन्नू से किसी पत्रकार ने हिंदी में बोलने का आग्रह किया तो उन्होंने दक्षिण भारत की फिल्मों से करियर आरंभ करने का तर्क देकर अंग्रेजी में बात जारी रखी। ठीक है कि फेस्टिवल में आए अधिकांश डेलीगेट अंग्रेजी समझते हैं, लेकिन भारतीय फिल्मों की भाषाई अस्मिता का ख्याल रखा जाना चाहिए।

हम दुनिया के दूसरे इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में देख चुके हैं कि कोरियाई, चीनी, ईरानी आदि भाषाओं के विजेता फिल्म निर्देशक और कलाकार अपनी भाषा में ही बात करते हैं। स्वयं यूपी में रूस से आए प्रतिनिधि रूसी भाषा में बातें करते हैं। तापसी पन्नू चाहतीं तो अंग्रेजी के बजाय तमिल और तेलुगू में भी अपनी बात रख सकती थीं, लेकिन हिंदी में भी जवाब दिए जा सकते थे। एक्टिंग का वर्कशॉप बीजेपी से जुडी एक अभिनेत्री और नेता ने संपन्न किया,जबकि अभिनय के नाम पर बताने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं है।

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यह तो सभी महसूस कर रहे हैं कि केंद्र में बीजेपी की सरकार आने के बाद अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के शान-ओ-शौकत में कमी आई है। जूरी से लेकर मेहमानों तक की सूची में बीजेपी के करीबियों को रखने की नीति से फेस्टिवल का स्वरूप भी मीडियोकर हो गया है। कहने को यह एशिया का सबसे बड़ा फेस्टिवल है, लेकिन अपने प्रभाव में यह एशिया के कई छोटे फेस्टिवल से भी कम है।

दरअसल, नौकरशाही ने इस फेस्टिवल को ग्रास लिया है। ऊपर से बीजेपी की संकीर्ण नीतियों से फेस्टिवल की हर समिति में अयोग्य व्यक्ति शामिल हुए हैं। कुछ प्रतिभाएं आती हैं, लेकिन हर साल हर जगह उनकी मौजूदगी से सवाल उठता है। राहुल रवैल और मधुर भंडारकर को ही लें। वे हर जगह और हर समिति में मौजूद रहते हैं। इस बार तो खासकर यह महसूस किया गया कि जिन फिल्मी प्रतिभाओं ने प्रधानमंत्री को खुला पत्र लिखा था, उन सभी को फेस्टिवल से दूर रखा गया। विरोधी और क्रिटिकल आवाजों को किनारे करने के इस प्रयास से मंत्रालय और बीजेपी के अधिकारी भले ही खुश हो लें, लेकिन सच्चाई यह है कि फेस्टिवल की गरिमा और महत्ता घटती जा रही है।

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