सिनेमा

ये हैं वो 8 दिलचस्प फिल्में, जिन्होंने सिनेमा प्रेमियों को कोरोना महामारी का दर्द कुछ पल के लिए भूलाने का दिया मौका

2020 सभी के लिए दुःस्व प्न की तरह रहा है। समाज का हर क्षेत्र और हर वर्ग महामारी से भरे भयावह माहौल की पीड़ा से गुजरा है। हिंदी सिनेमा भी इससे अछूता नहीं रहा। सिनेमा हॉल बंद रहे और फिल्मों के पास बस ओटीटी प्लेट फॉर्म का ही रास्ता बचा रहा।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

हिंदी सिनेमा के साथ-साथ सभी के लिए 2020 का वर्ष दुःस्वप्न की तरह रहा है। अधिकतर फीचर फिल्में जो ओटीटी प्लेटफॉर्मपर डम्पकर दी गईं, वे पूरी तरह से अरुचिकर नहीं थीं तो सब-स्टैंडर्ड तो थी हीं। यहां तक 2020 में, पहली बार देखने पर जो फिल्में मुझे अच्छी लगीं, वही फिल्में दूसरी बार देखने पर बहुत निराशजनक लगीं। इनमें हितेश केवल्या की समलैंगिक प्रेम कहानी ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’, मेघना गुलजार की तेजाब हमले की एक पीड़ित की सच्ची कहानी पर बनी ‘छप्पाक’, इरफान की ‘अंग्रेजी मीडियम’ और सुशांत सिंह राजपूतकी आखिरी फिल्म ‘दिल बेचारा’ शामिल हैं। यहां मैं कुछ ऐसी फिल्मों का जिक्र कर रहा हूं जो वर्ष के अंतमें मुझे अच्छी लगीं।

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लूडो

अनुराग बासु ने लंबे अंतराल के बाद ‘लूडो’ फिल्म के साथ फिल्मों में वापसी की है। यह फिल्म मीठे पागलपन के साथ-साथ बहुत ही भावनात्मक गहराई लिए हुए है। सुस्त हास्य और स्वयं निंदा की हंसी का इस फिल्म को 2020 की सबसे दिलचस्प फिल्म बनाने में बहुत बड़ी भूमिका है। दुख इस बात का है कि यह हमें घर पर देखनी पड़ी। ‘लूडो’ बड़े पर्दे की फिल्म है। इसका प्लॉट, भावनाएं, अदाकारी और प्रोडक्शन वेल्यू बहुत ज्यादा है। इस बार अनुराग बासु ने सिनेमेटोग्राफी भी खुद ही की है। किस किरदार के लिए कौन सा सटीक टोनल कॉम्प्लेक्शन देना है, यह उन्हें बहुत अच्छे-से मालूम है। इस फिल्म के सभी किरदार एक निश्चित व्यक्तित्व और बहुत अधिक विशिष्टता और उदार सनक के साथ उभरते हैं। श्रीमान बासु आपका फिर से स्वागत है, ‘जग्गा जासूस’ को माफ किया।

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थप्पड़

दूसरी बार देखने पर ‘थप्पड़’ फिल्म इतना प्रभावित नहीं करती जितना अनुभव सिन्हा की पिछली फिल्म‘आर्टिकल-15’ करती है, फिर भी ‘थप्पड़’ फिल्म इस वर्ष(2020) की प्रतियोगिता में बहुत आगे है। अगर हम इम्तियाज अली की पूरी तरह से बेरंग ‘लव आज कल’ और सुजीत सरकार की असहनीय और अरुचिकर ‘गुलाबो सिताबो’ से तुलना करें तो ‘थप्पड़’ एक बहुत महत्वपूर्ण फिल्महै। यह फिल्म मध्यवर्ग के दोगलेपन को पूरी तरह से उघाड़कर सामने लाती है और दिखाती है कि जब मानवाधिकारों की बात आती है तो सामूहिक रूप से एक राष्ट्र के तौर पर हमने अपने प्रयासों में स्वयं को बौना साबित तो किया ही है और साथ ही हम अपने घर की चार दीवारी में भी इस मामले में उतने ही विफल हैं। ‘थप्पड़’ को हम महिलाओं के सशक्तीकरण के एक शक्तिशाली दृष्टांत के रूप में भी देख सकते हैं या फिर उसे दोषारोपण के ऐसे विडंबना पूर्णकठोर तरीके के रूप में देखा जा सकता है जो सशक्तीकरण को नष्ट कर रहा है। इसका लेखन इतना तीखा है कि यह वैवाहिक असंतुलन के विषय पर कैसा सिनेमा होना चाहिए, उसकी सामूहिक धारणा को ही चीर-फाड़कर रख देता है। यह अनुभव सिन्हा की लगातार तीसरी महत्वपूर्ण फिल्म है। मुझे इस बात का इंतजार रहेगा किवह अगली बार हमारे सामने क्या लाते हैं।

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गुंजन सक्सेना

‘गुंजन सक्सेना’ में मुख्य बिंदु यह है कि एक ल़ड़की पुरुष वर्चस्व वाले क्षेत्र में प्रवेश करती है और वह भी किसी मर्यादा का उल्लंघन किए बिना। कहानी की अंतरात्मा को बदलाव की ऊर्जा सजीव कर देती है। निर्देशक शरण शर्मा की यह पहली फिल्म है। उनका प्रयास गंभीर है और वह किसी भी प्रकार के सस्ते रोमांच को अपने संयम और संतुलन पर हावी नहीं होने देते हैं। चमत्कारिक तरीके से युद्ध क्षेत्र में उड़ते हुए जेट विमान बेकाबू नहीं होते। मेरी बस एक ही इच्छा थी कि काश, कथानक की पृष्ठभूमि में बार-बार बज रहे गीतों से बचा जा सकता तो बेहतर होता। फिल्म को उन गीतों की जरूरत नहीं थी। जब गुंजन सक्सेना पायलट के कपड़ों में उड़ान भरने को तैयार थी तो ऐसे समय में थियेटर में बजने वाली तालियों की मुझे बहुत याद आई।

शकुंतला देवी

‘शकुंतला देवी’ पाक-साफऔर बहुत ही तरोताजा अनुभव की तरह हमारे सामने आई जो हर प्रकार की चाटुकारिता की मानसिकता से आजाद थी। काफी हद तक। कथानक के अंत में मां विद्याबालन और बेटी सानिया मल्होत्रा तथा निर्देशक अनु मेनन ने बड़ी दक्षता के साथ झंडे गाड़ दिए। किस्मत से पूरी बायोपिक का मूड हर समय बहुत ही मस्त और अच्छा ही रहा है, बस यहां-वहां दुख के थोड़े बहुत बादल अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। हमारे देसी बायोपिक में जो चीज सबसे कम पाई जाती है वह है सच्चाई। उदाहरण के लिए, धोनी वाली बायोपिक में उसके भाई का कहीं जिक्र ही नहीं था। और संजय दत्त की बायोपिक में उन्होंने उसकी बहन को तो ब्लॉक ही कर दिया। शकुंतला देवी की बायोपिक इस मामले में बिना किसी लाग-लपेट और किसी भी प्रकार के रंग-रोगन से दूर है।

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जवानी जानेमन

यह फिल्म पूरी तरह मौज-मस्ती से भरपूर है। यह एक ऐसी ड्रेस की तरह है जो अनौपचारिक तो है किंतु इतने करीने से काटी और सिली गई है कि इसे पहनने वाले को यह बिल्कुल बोझिल महसूस नहीं होती और न ही इसकी सिलाई-बुनाई में कोई अतिशयोक्ति नजर आती है। इस कहानी ने मानवीय कमजोरियों के लिए अपना दिल बहुत खुला रखा है। कहानी का नायक जो 40 पार की उम्र का है वह यह मानता है कि जिंदगी बस एक विशाल बिस्तर की तरह है। जहां बस आपको सोना है और आनंद लेना है। इस फिल्म में सैफ अली खान ने मध्यवर्गीय लेकिन बेपरवाह जिंदगी को बहुत अच्छा तरह से दर्शाया है।

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मी रक्सम

निर्देशन में पहली बार हाथ आजमाते हुए बाबा आजमी ने ‘मी रक्सम’ फिल्म में कुछ तय मानदंडों का खुलकर विरोध किया है। ‘मी रक्सम’ में बिना किसी राजनीतिक एजेंडा के भारत में सांस्कृतिक बदलाव के जोखिम भरे बहुत बड़े लक्ष्य को बहुत ही प्यार और ह्यूमर के साथ बड़ी कोमलता से मुखरित किया गया है। मीजवान के एक सुंदर से गांव में एक मुस्लिम लड़की रहती है जिसका नाम मरियम है। उसकी बड़ी इच्छा है कि वह भरत नाट्यम सीखे। लेखक-निर्देशक बाबा आजमी मरियम के अपने पिता के साथ उसी तरह से लाड़-प्यार के रिश्ते को दर्शाते हैं जिस तरह से यह ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म‘आशीर्वाद’ में अशोक कुमार और उनकी बेटी के बीच था।

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सर

इस फिल्म में मुबंई की एक गगनचुंबी इमारत में रहने वाला एक सम्पन्न व्यक्ति उसके घर में रहने वाली डोमेस्टिक हेल्प से प्रेम कर बैठता है। इस आइडिया में कुछ तो अजीब और ध्यान खींचने वाला है। मुझे यह स्वीकरना पड़ेगा कि मैंने रोहेना गेरा की इस पहली फिल्म को बहुत सारे किंतु-परंतु के साथ देखना शुरू किया। लेकिन इस वर्जित प्रेम की छुई-मुई कहानी के अंत तक पहुंचते-पहुंचते मैं इससे पूरी तरह समोहित हो चुका था। इसके लिए मैं सारा श्रेय कहानी की नायिका रत्ना को देता हूं जो पूरी तरह से गरिमामय, संयमशील और अपार करुणा से भरी हैं और सपने देखने की हिम्मत रखती हैं। गेरा ने इस संबंधको घरेलू माहौल में शक्ल-सूरत दी है और इसमें बहुत ही कोमल और सूक्ष्म संवेदना के हाव-भाव हैं। जिस तरह से यह रिश्ता आगे बढ़ता है, उसमें कोई गुणा-भाग नहीं है। रत्ना के किरदार को बहुत ही ध्यान से गढ़ागया है। तिलोत्तमा शोम ने इस किरदार को निभाया है। थोड़े ही समय में ऐसे लगने लगता है जैसे रत्ना को हम बहुत करीब से जानते हैं। उसका छोटे से छोटा हाव-भाव भी उसके आत्मसम्मान के बारे में बहुत कुछ बताता है।

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तैश

जब मैंने इस लंबे मास्टर पीस को दूसरी बार देखा तो महसूस किया कि यह कहानी बहुत दक्षता के साथ रची गई है और इसमें हर किरदार के पास अपनी एक जगह है। मैं इस फिल्म को देखते हुए कई बार सोच रहा था कि मैं इसे घर पर क्यों देख रहा हूं? ‘तैश’ हर दृष्टि से बड़े पर्दे पर अनुभव की जाने वाली फिल्म है। इसमें दिखाई गई भावनाएं, अहं, झगड़े, प्रतिशोध, चीखें और सन्नाटे, सभी बहुत बड़े हैं...। निरंतर रक्तपात और प्रतिशोध के इस प्रकार के परिदृश्य अगर किसी बेहुनर हाथों से गुजरते तो ये निराधार हिंसा के दृश्यों में बदल जाते। लेकिन बिजॉय नाम्बियार तो बिजॉय ही हैं। उनकी ‘शैतान’ फिल्म से लेकर ‘तैश’ तक मैं उनके काम को बहुत करीब से देखता हूं और उसकी प्रशंसा भी करता हूं।

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