सोशल मीडिया की तुरत-फुरत मशहूरी और लगातार बढ़ते फिल्मी ग्लैमर के बीच एक बुद्धिजीवी लेखक और कलाकार होने के मायने भी बदल गये हैं। हालांकि ये चर्चा हमेशा होती रही है कि बतौर कलाकार और बुद्धिजीवी एक व्यक्ति के समाज के प्रति क्या फर्ज होते हैं, क्या एक बुद्धिजीवी या लेखक को महज अपने विषय और लेखन तक ही सीमित रहता चाहिए ? गिरीश कर्नाड इस बात के जीवंत उदहारण थे कि एक सृजनशील व्यक्ति का समाजधर्म क्या होता है। वे ना सिर्फ एक नाटककार, फिल्म निर्देशक और अभिनेता थे बल्कि वे एक सजग नागरिक भी थे और इस नाते वे समाज से जुड़े विभिन्न आन्दोलनों, विरोध प्रदर्शनों में सक्रिय हिस्सा लेते रहे। धर्म और जाती को लेकर हो रही हिंसा के खिलाफ ‘नोट इन माय नेम’ आन्दोलन में शामिल बीमार गिरीश कर्नाड की तस्वीर आज भी दिमाग में कौंध जाती है।
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फिल्मों की दुनिया में उनका आगमन अचानक ही हुआ। इंडिया टुडे पत्रिका के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि एक प्रकाशक के यहां काम करते हुए उन्होंने अनंतमूर्ति के पहले उपन्यास ‘संस्कार’ की मेन्युस्क्रिप्ट पढ़ी और उन्हें लगा कि इस पर तो फिल्म बननी चाहिए। उन्होंने बहुत से लोगों से इस पर बातचीत की। इनमे से पट्टाभि रामा रेड्डी भी थे और उन्होंने फिल्म के लिए धन जुटाने का काम किया। इस तरह गिरीश कर्नाड फिल्म मेकिंग में आये। ‘हयवदन’ और ‘तुगलक’ जैसे मशहूर नाटकों के लेखक गिरीश कर्नाड रचनात्मकता के प्रति उत्साहित थे फिर वह चाहें फिल्में हों, अभिनय या लेखन हर काम उन्होंने उतनी ही लगन, निष्ठा और ईमानदारी से किया। यही ईमानदारी और निष्ठां समाज के प्रति भी व्यक्त होती रही। 1991 में एक टीवी सीरियल आया था ‘टर्निंग पॉइंट’। जानेमाने वैज्ञानिक और शिक्षाविद प्रोफेसर यशपाल के साथ मिल कर उन्होंने विज्ञान पर आधारित ये दिलचस्प कार्यक्रम होस्ट किया जो बहुत से अंधविश्वासों और कुरीतियों को विज्ञान की मदद से तोड़ता था। संस्कृत और पौराणिक गाथाओं के जानकार गिरीश कर्नाड की खासियत थी पौराणिक गाथाओं को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में पुनर्परिभाषित करना।
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सिनेमा जगत के महत्वपूर्ण दौर समान्तर सिनेमा में गिरीश कर्नाड की अहम् भूमिका रही। मुझे याद है- अपनी किशोरावस्था में फिल्म देखी थी ‘मंथन’। वैसे तो फिल्म गुजरात के दूध कोआपरेटिव आन्दोलन पर आधारित थी, लेकिन एक ग्रामीण महिला स्मिता पाटिल और युवा वेटनरी डॉक्टर गिरीश कर्नाड के बीच एक अबोला रिश्ता बहुत खूबसूरती से दर्शाया गया था। फिल्म में बतौर अभिनेता गिरीश कर्नाड इंसानी रिश्तों के उन सूक्ष्म आयामों को बखूबी दिखा पाए जो अमूमन बड़े दिग्गज कलाकार भी नहीं कर पाते। 1975 में आई ‘निशांत’ में अपनी पत्नी को ताकतवर जमींदार के चंगुल से बचाने की बेतहाशा कोशिश में लगे स्कूल मास्टर की भूमिका में भी गिरीश कर्नाड बहुत प्रभावशाली रहे। ‘कलियुग’ जैसी जटिल फिल्म और एक लम्बी चौड़ी स्टार कास्ट के लिए उन्होंने श्याम बेनेगल और सत्यदेव दुबे के साथ स्क्रिप्ट भी लिखी।
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मशहूर टीवी सीरियल मालगुडी डेज में मुख्य किरदार स्वामी के पिता के रोल में भी उन्हें याद किया जाता रहा। हिंदी और कन्नड़ के एक और दिग्गज नाटककार और फिल्म निर्देशक बी वी कारंथ के साथ भी उन्होंने कुछ फिल्मों का निर्देशन किया, स्क्रिप्ट्स लिखीं। ज्यादातर लोग ये नहीं जानते कि उन्होंने फीचर फिल्म के अलावा कुछ अद्भुत डॉक्युमेंट्रीज भी बनायीं। कर्नाटक के दो भक्ति कवियों पर ‘कनक पुरंदर’, कवि डी आर बेंद्रे पर केन्द्रित फिल्म, सूफिज्म और भक्ति आन्दोलन पर ‘द लैंप इन द नीश’ शानदार फिल्मे हैं जो ना सिर्फ कन्नड़ कविता जगत को दर्शाती हैं बल्कि सूफी और भक्ति आन्दोलन के देशव्यापी प्रभाव को भी प्रभावपूर्ण तरीके से व्यक्त करती हैं।
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उन्हें कितने पुरस्कार मिले ये गिनाना जरूरी नहीं। जरूरी ये है कि हम साहित्य, फिल्म और समाज के प्रति उनके अप्रतिम योगदान को याद रखें, हम ये याद रखें कि एक स्कॉलर और सृजनशील व्यक्ति के तौर पर उनका दायरा सीमित नहीं था। कमर्शियल फिल्मों से लेकर कलात्मक फिल्मों तक, नाटकों से लेकर अभिनय और लेखन तक और सामाजिक जाग्रति से सम्बंधित आन्दोलनों तक गिरीश कर्नाड हर उस क्षेत्र से जुड़े रहे जिसमे वे सामाजिक बेहतरी के लिए कुछ योगदान दे सकें।
गोहत्या के नाम पर हो रही लिंचिंग के खिलाफ ‘नोट इन माय नेम’ के एक विरोध प्रदर्शन की अगुआई करते हुए उन्होंने कहा था ‘अपने साथी भारतीयों पर हुए किसी भी अन्याय के खिलाफ हमें विरोध करना ही चाहिए। हमारा एक संविधान है, कानून व्यवस्था है और फिर भी ये सब हो रहा है तो ये भयावह है। हम जानते हैं कि ये क्यों हो रहा है, ये धार्मिक नहीं राजनीतिक है।”
अपनी कला और लेखन के जरिए वो समाज के लिए काम करते रहे, उन्हें ना तो कभी अपनी राजनीतिक विचारधारा को जतलाने की जरुरत महसूस हुयी ना ही कभी अपनी देशभक्ति को साबित करने की।
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