क्या जिंदगी सिर्फ मर्द-औरत के बीच चल रही रस्साकशी का नाम है, जिससे फिल्म के निर्देशक लव रंजन (नाम पर गौर फरमाएं) निकलना ही नहीं चाहते या इंसानी रिश्ते सिर्फ दोस्तों और सेक्स के बीच चल रही जद्दोजहद तक ही सिमटे होते हैं? ‘प्यार का पंचनामा’ से मशहूर हुए फिल्म निर्देशक लव रंजन कि ताजा फिल्म महज लड़कियों और औरतों की बेहूदा खिंचाई भर है, जो उनकी पहली फिल्म ‘प्यार का पंचनामा’ से मशहूर हुई थी, ‘प्यार का पंचनामा 2’ इतनी नहीं चली थी और ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ तो नाकाबिले बर्दाश्त है।
फिल्म देख कर शक होने लगता है कि कहीं निर्देशक औरतों से नफरत तो नहीं करते हैं। अपनी पहली फिल्म प्यार का पंचनामा से लेकर इस लम्बे और उलझे हुए नाम की फिल्म तक वे औरतों के कमजोर इरादों, उनके मतलबी होने और मर्दों को काबू में रखने की आदत का जोर-जोर से ढिंढोरा पीटते दिखाई देते हैं (लेकिन माफ़ कीजिये-क्या यही सब मर्दों में भी देखने को नहीं मिलता?)
हां, लेकिन एक बात में तो निर्देशक थोड़े मेच्योर हुए हैं- अपनी पहली फिल्म में वे गर्ल फ्रेंड्स की खामियां गिना रहे थे(कि सेक्स के अलावा किस तरह से वे अपने बॉय फ्रेंड्स की जिंदगी को नरक बना देती हैं) और इस फिल्म में वे शादी की बात कर रहे हैं (जिसमें बेशक सेक्स बहुत जरूरी होता है!) यानी सेक्स से परे या उसके साथ ही मर्द-औरत में कोई और रिश्ता या कोई और बंधन हो ही नहीं सकता और मर्दों के वर्चस्व वाले समाज में औरतें उन्हें एक्सप्लॉइट करने के नित नए तरीके निकलती रहती हैं। (काश दुनिया और समाज को इतनी आसानी से समझा जा सकता!)
कहानी सीधी सी है। सोनू और टीटू बहुत करीबी दोस्त हैं, समझ लीजिये कि दोनों के बीच दांत काटी रोटी है। टीटू अमीर और बिगड़ैल लड़का है, जिसे हर सुन्दर लड़की से इश्क हो जाता है। सोनू ‘होशियार’ और चौकन्ना दोस्त है, जो टीटू को इन धोखेबाज लड़कियों के जाल से बचाता है, जो उसे अपने इश्क में (यानी सेक्स में )बांधने की कोशिश करती रहती हैं। आखिरकार टीटू की जिंदगी में आती है स्वीटी, जो खूबसूरत है, हॉट है और ‘संस्कारी’ भी (भला ऐसा कॉम्बिनेशन कहां मिलता है!) लेकिन, सोनू को इस लड़की की भलमनसाहत पर शक है और एक आदर्श रोमांस के बीच स्वीटी भी जाहिर कर देती है कि वो इतनी शरीफ नहीं है। बस यहीं से शुरू होती है ‘भाई’ और ‘होने वाली दुल्हन’ के बीच जद्दोजहद। स्वीटी चुनौती देती है कि लड़की और दोस्ती के बीच जीत लड़की की ही होती है और पूरी फिल्म इस संवाद को गलत साबित करने के सोनू के मिशन में तब्दील हो जाती है।
बीच-बीच में कुछ सेक्सिस्ट डायलाग हैं, कुछ कॉमिक सिचुएशन हैं (जो ज्यादातर सेक्स से जुड़े चुटकलों और भद्दे मजाकों पर ही आधारित हैं), जो बेशक हंसाती हैं। यह देख कर अच्छा लगता है कि आलोकनाथ आखिरकार अपने ‘संस्कारी’ चोले को त्याग कर एक खिलंदड और मजाकिया दादा के रोले में अवतरित हुए हैं, लेकिन उनका किरदार भी सेक्स और सेक्स-आधारित जुमलों के इर्द गिर्द घूमता हुआ लगभग औरत-विरोधी ही नजर आता है। सोनू और स्वीटी के बीच की खींचतान एक सेक्सिस्ट रस्साकशी ज्यादा लगती है, जो आखिर में दर्शकों को एक नाखुशगवार एहसास के साथ छोड़ जाती है।
औरतों को महज एक सेक्स ऑब्जेक्ट, एक वस्तु की तरह दिखाने और प्रोजेक्ट करने का रिवाज भारतीय सिनेमा में नई बात नहीं है। लेकिन, लव रंजन की फिल्में इसे बहुत भद्दा और लाउड बना देती हैं और वे इससे उबरे नहीं हैं, शायद इसलिए कि इससे उनकी फिल्मों को कमर्शियल सफलता मिली है, फिर भी, आज के माहौल में जहां ‘शादी में जरूर आना’, ‘बरेली की बर्फी’ ‘पैड मैन’ जैसी फिल्मों ने बेहतरीन कारोबार किया है। जिन फिल्मों में महिलाओं को सिर्फ सेक्स ऑब्जेक्ट नहीं बल्कि एक शख्स के तौर पर दिखाया गया है और उन्हें सार्थक भूमिकाएं भी मिली हैं। सामाजिक तौर पर एक अहम सन्देश भी दिया गया है, इससे जाहिर होता है कि सेक्सिस्ट कॉमेडी को अपना खास स्टाइल बना लेना ना तो ज्यादा देर तक चल पाएगा और न ही उसे लम्बे समय तक वाहवाही मिल सकती है।
अब वक्त आ गया है कि हमारी फिल्म इंडस्ट्री को यह एहसास हो कि रिश्तों में सेक्स के अलावा और भी बहुत कुछ है जिस पर हंसा-हंसाया जा सकता है, जिसे एक्स्प्लोर किया जा सकता है और फिल्मों की सार्थकता उनकी कमर्शियल सफलता से कहीं अधिक और कहीं ज्यादा अहम है। खास तौर पर इस दौर में जब सामाजिक तौर पर महत्वपूर्ण विषयों पर फिल्में न सिर्फ बन रही हैं, बल्कि हिट भी हो रही हैं। हालांकि दर्शकों का एक युवा वर्ग (खास तौर पर नौजवान लड़के) है जो इस फिल्म के अगंभीर और लगभग अश्लील ह्यूमर का मजा लेंगे, लेकिन यह फिल्म आखिरकार एक सस्ती सेक्स कॉमेडी भर ही है, इसके अलावा कुछ नहीं है।
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