फिल्म ‘छिछोरे’ की शुरुआत बहुत धीमी गति से होती है। लगता है कि फिल्म का शीर्षक गलती से ‘छिछोरे’ रख दिया गया है। आपको लगभग निराशा होने लगती है शुरुआत के उदासी भरे माहौल से। लेकिन धीरे-धीरे कहानी दिलचस्प मजाकिया और प्रेरक होती जाती है।
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मोटे तौर पर कहा जाए तो, फिल्म ‘जो जीता वही सिकंदर’ का ही एक संस्करण लगेगी। एक सुविधा संपन्न वर्ग और उपेक्षित वर्ग के बीच प्रतिस्पर्धा की कहानी है। लेकिन करीब से देखने पर ये फिल्म भारत में कॉलेज के जीवन के इर्द-गिर्द घूमते दो मुख्य कथानकों का दिलचस्प मिश्रण है। एक तो कॉलेज (यानी ज़्यादातर हॉस्टल) का जीवन और दूसरे, अपने मन पसंद कॉलेज में दाखिला पाने की जद्दोजहद।
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हालांकि कहानी के केंद्र में व्यावसायिक तौर पर सफल माता-पिता के बेटे की आत्महत्या की कोशिश है क्योंकि वह एक एंट्रेंस परीक्षा में फेल हो गया है, लेकिन निर्देशक कहानी को बहुत कुशलता से उस किशोर के मां-बाप के अतीत की तरफ मोड़ देता है और इंजीनियरिंग के कुछ छात्रों की खुद को स्पोर्ट्स में साबित करने की एक और अधिक मजाकिया और दिलचस्प कहानी बताने लगता है। फिर साथ ही उस किशोर के मां-बाप के प्रेम और डिवोर्स की कहानी भी चलती है। कहानी कहने का ये तरीका फिल्म को कहीं भी उबाऊ नहीं होने देता। पढ़ाई और सफल होने के दबाब में आकर आत्महत्या की हद तक हताश हो जाने जैसे संवेदनशील मुद्दे को लेकर लेखक और निर्देशक नितेश तिवारी दर्शकों को एक और मजाकिया कहानी के साथ बांध लेते हैं, इस मुद्दे के और गंभीर (विवादस्पद) आयामों पर ध्यान दिए बगैर।
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हालांकि कहानी का फोकस इस बात पर है कि सफलता-असफलता जीवन का एक हिस्सा हैं, जीवन नहीं, फिल्म ज़्यादातर कॉलेज के छात्रों की सफलता पाने के संघर्ष के इर्द गिर्द ही घूमती है। बहरहाल, अंत में नायक ये कह देता है कि सफलता से ज्यादा अहम है उसे हासिल करने का संघर्ष।
अच्छी बात ये है कि ‘छिछोरे’ हमारी युवा पीढ़ी पर छाये प्रतिष्ठित एंट्रेंस परीक्षाएं पास करने के जूनून को दिखाती है, ये बताते हुए कि इन परीक्षाओं को पास करना ही सफल होना नहीं है। लेकिन फिल्म में माता-पिता के दवाब या शिक्षा व्यवस्था की उन खामियों पर बात नहीं की गयी है। जिनकी वजह से ये परीक्षाएं हमारे युवाओं के लिए इतनी अहम हो जाती हैं।
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ये फिल्म दरअसल सपोर्टिंग कास्ट की फिल्म है। मम्मी (तुषार पांडे), एसिड (नवीन पोलीशेट्टी), डेरेक (ताहिर भसीन) और खासकर सेक्सा के रोल में वरुण शर्मा फिल्म की जान हैं। सुशांत और श्रद्धा कपूर भी अपने रोल में ठीक ठाक हैं। दरअसल, जब कहानी अच्छी हो, या निर्देशक कहानी को कुशलतापूर्वक पर्दे पर उतार दे तो औसत वाले अभिनेता भी ठीक ठाक परफॉर्म कर लेते हैं।
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इस फिल्म की संगीत की बात करे तो संगीत ज़्यादातर सिचुएशन-आधारित है और कुछ खास नहीं कि जिसका जिक्र किया जाए। ‘फिकर नॉट’ फिल्म के बाद भी जेहन में घूमता रहता है और कॉलेज के जीवन का नास्टैल्जिया भी। फिल्म ‘छिछोरे’ को इसके किरदारों और उस प्रेरणापूर्ण सबक के लिए देखना चाहिए जिसकी सिर्फ छात्रों को ही नहीं, जीवन के हर मुकाम पर संघर्ष करते आम आदमी को ज़रुरत होती है।
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