खबर है कि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद कुछ ही दिनों बाद दिए जाने वाले राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के लिए अपना बहुमूल्य समय नहीं निकाल पाएंगे। पिछले कुछ सालों से राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के लिए भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने तीन मई की तिथि तय कर दी थी। हर साल इसी दिन ये सम्मानित पुरस्कार बांटे जाते थे। इन पुरस्कारों की गरिमा और इनकी प्रतिष्ठा आज भी तमाम फिल्म पुरस्कारों की तुलना में कहीं ज्यादा है। यह अपने किस्म का इकलौता पुरस्कार है जिसके साथ राष्ट्रपति पुरस्कार (प्रेजिडेंट अवार्ड) जुड़ा है, क्योंकि इसे भारत के राष्ट्रपति के हाथों दिया जाता है।
पिछले साल मई में जब इन पुरस्कारों को दिया जाना था तो अचानक पुरस्कार विजेताओं को सूचना मिली कि उन्हें यह पुरस्कार राष्ट्रपति के हाथों नहीं बल्कि तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी के हाथों से मिलेगा। राष्ट्रपति व्यस्त हैं और उन्हें इतने लंबे समय तक विज्ञान भवन में पुरस्कार प्रदान करने का समय नहीं है। वह सिर्फ चुनिंदा दो-चार अवार्ड और दादा साहेब फाल्के सम्मान प्रदान कर चले जाएंगे। विजेताओं को धक्का लगा था। यह क्या मजाक है? राष्ट्रपति पुरस्कार, राष्ट्रपति नहीं देंगे तो इन पुरस्कारों की गरिमा क्या रह जाएगी? व्यापक विरोध हुआ। सूचना और प्रसारण मंत्रालय में शिकायतें गईं। विजेताओं ने पुरस्कार समारोह का बहिष्कार करने की धमकी दी और कईं ने टीवी चैनलों के सामने जमकर भड़ास निकाली।
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इसके बाद राष्ट्रपति कार्यालय को लगा होगा कि मामला ज्यादा गहरा हो रहा है, तो राष्ट्रपति कार्यालय ने मीडिया के सामने एक बयान जारी कर जो कहा उसका निहितार्थ यह था कि इस पूरे मामले में राष्ट्रपति की कोई गलती नहीं बल्कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय की गलती है, जिसने राष्ट्रपति कार्यालय को अंधेरे में रखा कि उन्हें इतने सारे पुरस्कार देने हैं। बहरहाल, नतीजा यह हआ कि राष्ट्रपति ने श्रेष्ठ अभिनेता, अभिनेत्री, श्रेष्ठ फिल्म, दादा साहेब फाल्के जैसे कुछ अवार्ड दिए और बाकी सारे अवार्ड स्मृति ईरानी के पल्ले छोड़ कर चले गए। कई फिल्मकारों और फिल्मी हस्तियों ने ‘मरता क्या ना करता’ शैली में ईरानी से ही पुरस्कार लेकर संतोष कर लिया। लेकिन कई जो यह कटु सत्य पचा नहीं पाए, समारोह का बहिष्कार कर घर लौट गए।
अब खबर आई है कि इस बार का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, जो तीन मई को दिया जाना था, उससे काफी महीने पहले, बल्कि संभवतः एक महीने के अंदर ही किसी तारीख को दिया जाएगा और इसे राष्ट्रपति नहीं बल्कि उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू देंगे। यानी, इस बार भी महामहिम इन पुरस्कारों के लिए अपना बहुमूल्य समय नहीं निकाल पाएंगे। जाहिर है कि इसका कोई न कोई कारण दिया होगा और उनकी कुछ अन्य व्यस्तताओं और कार्यक्रमों का हवाला दिया गया होगा। लेकिन यह नितांत दुखद है कि जिस संस्थान (राष्ट्रपति) के नाम पर यह पुरस्कार हो, वही संस्थान इससे धीरे-धीरे किनारा कर ले। पिछले साल भी संभवतः पहली बार हुआ कि राष्ट्रपति ने चंद पुरस्कार ही बांटे।राष्ट्रपति कोविंद जी के इस प्रकरण के ठीक एक साल पहले प्रणव मखुर्जी भारत के राष्ट्रपति थे। उन्होंने न केवल सारे पुरस्कार अपने हाथों से बांटे बल्कि सारे समारोह के दौरान उपस्थित रहे। उम्र और वरिष्ठता में प्रणव मखुर्जी, निश्चित तौर पर अपने उत्तराधिकारी से कहीं आगे हैं।
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खैर, इस पूरे प्रकरण को तूल देना अपना मकसद नहीं बल्कि इस पर चर्चा करना था कि इन सब के पीछे मूल रूप से कुछ लोगों, कुछ सरकारों या संस्थाओं की वह सोच है जिसके तहत कला, संस्कृति, सिनेमा आदि को तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए। इस सोच के मुताबिक ये तवज्जो देने वाली चीजें नहीं हैं। ये हल्की चीजें होती हैं। सिनेमा सिर्फ नाच-गाना होता है। कला कुछ वामपंथियों का शगल है और संगीत दरअसल बाबाओं का भजन है। बाहरी तौर पर लोगों को मालूम नहीं होगा लेकिन सत्य यह है कि आज सिनेमा के क्षेत्र में चंद गिने- चुने नाम हैं जो आपको हर समितियों, समारोहों और सलाहकार परिषदों में मिलेंगे। इन नामों में भी इक्के-दुक्के हैं जिनकी कोई क्रेडिबिलिटी है, कोई सम्मान है। वरना, बाकी सब ऐरे-गैरे और नत्थू खैरे टाइप थू ही हैं।
अभी हाल की एक घटना है। गोवा में पिछले दिनों सम्पन्न भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के दौरान फिल्मकार मधुर भंडारकर (ये भी ऊपर वाले गिनी चुनी बिरादरी वाले हैं) की एक मास्टर क्लास आयोजित की गई। मास्टर क्लास माने एक फिल्मकार जो अपनी विधा का गुरु है, मास्टर है, उसकी क्लास। खैर, इस मास्टर क्लास के लिए भंडारकर साहब तो तत्पर थे ही लेकिन उनके सामने जिन पत्रकार बंधु को सवाल-जवाब के लिए रहना था, उन्होंने मना कर दिया। उन्होंने कहा, इससे मेरी बेइज्जती हो जानी है। मधुर भंडारकर कब मास्टर हो गए? जब उक्त पत्रकार ने मना किया तो आयोजकों ने एक और वरिष्ठ पत्रकार से संपर्क किया। उन्होंने भी भंडारकर को मास्टर मानने से मना कर दिया। कोई विकल्प न देख, आयोजकों ने इस मास्टर क्लास को ही रद्द कर दिया।
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लगभग ऐसा ही आलम, सरकारी फिल्म समारोहों की जूरी या अन्य जगहों में होता है। वैसे, हर बार जूरी के कुछ सदस्य ऐसे होते हैं जो जुगाड़ वाले होते हैं। यानी, किसी न किसी जुगाड़ से उनकी वहां एंट्री होती है। लेकिन पिछले कुछ सालों से जुगाड़ वाले हावी हो गए हैं। उन्हें सिनेमा की न कोई समझ है, न तमीज। उन्होंने फिल्में देखी नहीं हैं। वर्ल्ड सिनेमा क्या है, वहां क्या चल रहा है, इनसे उन्हें दूर-दूर तक वास्ता नहीं। बस उन्हें हर फिल्म को कथित भारतीय मूल्य और संस्कार के चश्मे से देखनी है और वाहियात टिप्पणियां करनी हैं।
करीब दो साल पहले, मैं भारतीय सेंसर बोर्ड की एक समिति में था। एक फिल्म की स्क्रीनिंग चल रही थी। फिल्म बिल्कुल वाहियात थी। कुल पांच लोग फिल्म देख रहे थे। दो पुरुष सदस्य और दो महिला सदस्य और सेंसर बोर्ड के एक अधिकारी। मेरे अलावा जो पुरुष सदस्य थे, अचानक सीट से उठ खड़े हुए और कहने लगे, इस फिल्म को रोकिए...इसे रोकिए। फिल्म रोकी गई। पूछा गया कि भाई, क्या आपत्ति है आपको? क्या प्रॉब्लम है? उन्होंने जो कुछ कहा, लगा जैसे मजाक कर रहे हों।
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उन्होंने कहा, “इस संवाद को निकालना होगा। इसमें गरीब और गरीबी शब्द का प्रयोग है।” उनसे पूछा गया कि तो इससे आपको क्या परेशानी है? उन्होंने कहा, “यह शब्द आपत्तिजनक है।” हमने पूछा, गरीब शब्द कब से आपत्तिजनक हो गया? तो उनका जवाब था, “फलां जी ने देश में गरीबी तो खत्म कर दी है। अब तो यहां कोई गरीब है ही नहीं तो इस फिल्म में ऐसा संवाद क्यों है?” कहना न होगा कि वह सज्जन संस्कारी टाइप थे और जुगाड़ से सेंसर बोर्ड में घुस आए थे। उनके चेहरे पर आक्रोश था और गुस्से से तमतमाए बैठे थे।
जब मेरे अंदर का पत्रकार जागा तो हमने उन्हें प्रेम से समझाया कि भाई साहब, ये अखबार का आर्टिकल नहीं है कि छपने से पहले जब मर्जी एडिट कर लो। यह सिनेमा है। यहां कुछ भी काटने-छांटने से पहले बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। हां, गरीबी है या नहीं, इस पर किसी न्यूज चैनल पर जाकर बहस कर लें। इस जगह को बख्श दें। तब जाकर वह अपनी सीट पर बैठे।
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