विनीत कुमार सिंह ने करीब 18 साल पहले एक टैलेंट हंट के जरिये मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा था। उन्होंने बहुत सारे छोटे-छोटे किरदार निभाये, फिल्म ‘चेन कुली की मेन कुली की’ (2007) का सहायक निर्देशन भी किया, लेकिन उनकी अलग पहचान बनी फिल्म ‘बॉम्बे टॉकीज’ (2013) और ‘गैंग्स ऑफ वासीपुर’ (2012) से। उसके बाद जब अनुराग कश्यप की ‘अग्ली’ (2013) का कान फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शन हुआ तो लोगों ने उनके अभिनय की काफी सराहना की। लेकिन अब भी वे बतौर अभिनेता कमर्शियल सफलता से दूर थे। लेकिन ये साल उनके लिए बहुत खुशकिस्मत रहा। ‘मुक्काबाज’ में उनके अभिनय और पटकथा को ना सिर्फ सराहा गया बल्कि फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर भी अच्छा प्रदर्शन किया। उसके बाद आई सुधीर मिश्र की ‘दास देव’, जिसका प्रदर्शन तो औसत रहा, लेकिन विनीत ने अपने सशक्त अभिनय से फिल्म में एक छोटी सी भूमिका में भी लोगों का दिल जीत लिया। एक लंबे संघर्ष के बाद आयुर्वेद में स्नातक और बास्केट बॉल खिलाड़ी रहे विनीत को बतौर अभिनेता सफलता हासिल हुयी है। पेश हैं उनसे बातचीत के प्रमुख अंश
क्या ‘मुक्काबाज’ से जुड़ी आपकी उमीदें पूरी हुईं? उसके बाद का जीवन कैसा चल रहा है?
मैंने जितना सोचा था, उस से ज्यादा ही हो रहा है। ‘मुक्काबाज’ को रिलीज हुए चार महीने हो गए। इन चार महीनों में जितनी स्क्रिप्ट आयी हैं,उतनी 18 साल में नहीं आयी थीं। इसके पहले ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के बाद भी चीजें बदली थीं। इस बार बदलाव ने रफ्तार पकड़ ली है।
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का चलन है कि जिस फिल्म और किरदार से आप मशहूर होते हैं, बाद में वैसी ही फिल्मों के ऑफर आते हैं.....
वैसी तो नहीं, लेकिन उत्तर भारत की फिल्मों की तादाद ज्यादा है। मेरी पिछली फिल्में लोगों के जहन में हैं। मुझे वैसी विविधता की फिल्में आ रही हैं। मैं किसी इमेज में नहीं फंसा हूं। लोगों का बढ़ा विश्वास दिख रहा है। मेरी क्षमताओं में यकीन बढ़ा है।
क्या ऐसा कह सकते हैं कि ‘मुक्काबाज़’ ने आप की पुरानी फिल्मों को भी जिंदा कर दिया है?
बिलकुल सही कहा आप ने। मेरी पुरानी फिल्में याद आ गयी हैं। लोग नाम लेकर बताते हैं। न चली फिल्में भी लोग याद करते और कराते हैं। रिलीज के समय उन फिल्मों की कभी इतनी चर्चा नहीं हुई थी।
यह स्वाभाविक है। मशहूर होते ही आप के बारे में सारी जानकारियां तैरने लगती हैं….
जी हां, आप सही कह रहे हैं। लोगों का भरोसा इसलिए भी मिल रहा है कि ‘मुक्काबाज’ के समय ढेर सारे लोगों से मिला था। उन्हें मुझ में अब भरोसा हो रहा है। अनुराग ने मेरी स्क्रिप्ट में विश्वास किया था…। अभी बाकी लोग भी कर रहे हैं। फिल्म देखने के बाद 70 प्रतिशत लोगों ने फोन किया।
आप ने अनुराग का जिक्र किया। आज के विनीत में उनका क्या योगदान है?
अगर वे न होते तो मेरे हिस्से में यह सब नहीं आता। यह बात साफ है। मैंने हमेशा मेहनत की। सभी भूमिकाओं में की, लेकिन ऐसी पहचान नहीं मिली। अनुराग ने मेरे करियर को बनाया। मुझे एक एक्टर बनाया। आज लोगों को लगता है कि मैं एनएसडी या एफटीआईआई से हूं।
आम जिंदगी में गुरू और उस्ताद अपने चेलों और शागिर्दों को जताते रहते हैं कि मैंने क्या-क्या किया? क्या कभी अनुराग को भी ऐसे रूप में देखा है?
मैंने कभी ऐसा अनुभव नहीं किया। उन्होंने कभी नहीं जताया। हां, उनका कंसर्न रहता है। मैं संयुक्त परिवार में पला भावुक लड़का हूं। थोड़ा इमोशनल हो जाता हूं। अनुराग इस बात को जानते हैं। अनुराग ऐसे स्वाभाव के नहीं हैं। अपने योगदान का कभी भार नहीं डालते।
आप जैसे अभिनेता सफल होने तक एक उम्र गुजार चुके होते हैं। यही कामयाबी दस साल पहले आ गयी होती तो कुछ और बात होती?
कुछ चीजें हमारे वश में नहीं होतीं। पहले कुछ सालों में सफलता मिल गयी होती तो ज्यादा काम कर पाया होता। भूख थोड़ी शांत हो गयी होती। कुछ फिल्में गिनाने के लिए होतीं। फिर भी अफसोस नहीं है। इस दरम्यान सीखता रहा। अब समझ में आ रहा है कि वक्त बेकार नहीं जाता। खुद पर काम कर रहा हूं।
हम कौन सी फिल्म में आप को देखेंगे?
अक्षय कुमार के साथ ‘गोल्ड’ आएगी। उनसे बहुत कुछ सीखा। खुश रहना कोई उनसे सीखे। वे कभी स्ट्रेस में नहीं रहते। एक फिल्म और मिली है, जिसके निर्माता अनुराग कश्यप हैं।
’मुक्काबाज’ की कामयाबी से जिंदगी में क्या बदलाव आया है?
मेरी बेचैनी कम हो गयी है। मैं शांत हो गया हूं। पहले लगता था कि मैं मुंबई में गुम हो गया हूं। मैं लोगों के सवालों के जवाब नहीं दे पा रहा था। अब मेरे पास मुकम्मल जवाब है।
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