जुलाई के तीसरे हफ्ते में फिल्म निर्माता निखिल द्विवेदी ने 1990 के दशक की अभिनेत्री ममता कुलकर्णी पर एक बायोपिक बनाने की घोषणा की, तो तड़क-भड़क वाली सिनेमा की दुनिया के गलियारों में इस पर कुछ दबी हुई हंसी के स्वर सुनाई दिए। ममता कुलकर्णी को एक अभिनेत्री के रूप में उनके काम के बजाय देह को ज्यादा दिखाने वाली चमकीली पत्रिका के मुखपृष्ठों पर चित्रों और ड्रग डीलर के साथ शादी के लिए ज्यादा जाना जाता है। इस बायोपिक की घोषणा गणित की जीनियस शकुंतला देवी पर बनी फिल्म के रिलीज होने के एक हफ्ते पहले हुई। इसमें विद्या बालन ने असाधारण‘ह्यूमनकम्प्यूटर’ की भूमिका निभाई है ।‘शकुंतला देवी’ फिल्म के बाद ‘गुंजनसक्सेना: द कारगिल गर्ल’ ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आने वाली है। यह फिल्म एयरफोर्स पायलट की शहादत की वास्तविक कहानी पर आधारित है जिसमें जाह्नवी कपूर मुख्य भूमिका में हैं।
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बायोपिक- वास्तविक चरित्रों/व्यक्तित्वों के जीवन पर बनने वाली फिल्मों, की लंबी श्रृंखला की ये ताजा कड़ियां हैं। लेकिन इसके साथ कुछ मंथन भी उभर रहा है। सन 2015 से 2020 के दरम्यान वास्तविक चरित्रों पर बनने वाली फिल्मों की एक लंबी श्रृंखला है। जैसे, खिलाड़ियों पर (‘मैरी कॉम’, ‘दंगल’, ‘भाग मिल्खाभाग’, ‘एमएस धोनी: द अनटोल्डस्टोरी’, ‘सूरमा’), आतंकवादियों और गैंगस्टरों पर (‘ओमेर्ता’, ‘डैडी’, ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’) और गुमनाम रहे नायकों पर (‘नीरजा’ और ‘मांझी’) फिल्में बनी हैं। कुछ राजनीतिक लोगों पर भी बायोपिक बने हैं। इस साल के शुरू में दीपिका पादुकोण की फिल्म‘छपाक’ आई थी जो एसिड हमले की शिकार लक्ष्मी अग्रवाल के जीवनपर आधारित थी। रुपहले पर्दे पर कुख्याति बिकती है, खासकर जब प्रकट सत्यमें गिफ्ट रैपर चढ़ा हो, हालांकि एक फिल्म निर्माता के अनुसार ‘सत्य’ जीवन संबंधी विषय से मेल नहीं भी खा सकता है। ‘मुन्नाभाई’ के लिए प्रसिद्धि पाए राजकुमार हिरानी ने सन 2018 में अभिनेता संजय दत्त के जीवन पर ब्लॉकबस्टर फिल्म‘संजू’ बनाई। इसमें रणबीर कपूर ने मुख्य भूमिका निभाई थी। लेकिन फिल्म में आधा सत्य था। इसमें संजय दत्त की पहली बेटी का नाम मात्र भी जिक्र नहीं था। उसी तरह से धोनी पर बनी बायोपिक में क्रिकेटर के भाई को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया था क्योंकि उनकी आपस में बनी नहीं। उनचंद बायोपिक में से ‘संजू’ भी एक थी जिनको बॉक्सऑफिस पर सफलता मिली।
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निर्माता-निर्देशक विवेक अग्निहोत्री बायोपिक के लिए विषयों के चयन पर दुख व्यक्त करते हुए कहते हैं, “ममता कुलकर्णी ही क्यों जबकि हमें सुप्रसिद्ध अभिनेत्री नरगिस दत्त पर फिल्म बनानी चाहिए। और श्रीमती इंदिरा गांधी पर कोई अच्छी फिल्म क्यों नहीं है? या फिर एपीजे कलाम पर? हम ओशो रजनीश पर फिल्म बनाने में क्यों असफल रहे? निश्चित रूप से एमएस धोनी पर बायोपिक बनी थी। लेकिन यह क्लासिक नहीं थी। रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’ जैसी फिल्म की तरह किसी भी महान भारतीय नेता पर एक भी बायोपिक कहां है? हम औसत (मीडीओकर) विषयों पर औसत बायोपिक क्यों बना रहे हैं? क्या रचनात्मक तौर पर बंजर बॉलीवुड का बायोपिक एक आसान मार्ग है? बायोपिक ‘शाहिद’ और ‘अलीगढ़’ के स्क्रिप्ट राइटर और लेखक- निर्देशक अपूर्व असरानी कहते हैं, “यह यथार्थ का समय है। कहानी और उसके कहने का अंदाज जितना प्रामाणिक होगा, उतना ही उसे अपनाया जाएगा। मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि बायोपिक का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। चाहे वह आलोचनात्मक रूप से सराही गई फिल्म‘शाहिद’ हो या ‘अलीगढ़’ या फिर ‘धोनी’ और ‘भाग मिल्खा भाग’ जैसी ब्लॉकबस्टर हो, वर्तमान में बायोपिक्स मौसमी चाव से ज्यादा हैं। एक लेखक या कलाकार के लिए भी किसी के जीवनकी वास्तविक शोध सामग्री को खंगालना और फिर उसे अपनी तरह से उसे प्रस्तुत करना बहुत ही रोचक और जोश भरा होता है।”
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वास्तविक राजनीतिक मुद्दे पर आधारित फिल्म आर्टिकल 15 के निर्देशक अनुभव सिन्हा मानते हैं कि बायोपिक बनाना कोई रचनात्मक समझौता नहीं है। वह कहते हैं, “कोई किस विषय पर फिल्म बनाना चाहता है , यह व्यक्तिगत पसंद है। मुझे विश्वास है कि जिसने भी जिन व्यक्तित्वों पर फिल्में बनाईं, वे उनसे प्रेरित थे। यहां तक बायोपिक लिखना भी बहुत मुश्किल होता होगा, इसलिए मैं यह आरोप तो नहीं लगाऊंगा कि बायोपिक रचनात्मक आइडिया की कमी की वजह से बनती हैं।” पूर्व राष्ट्रपति एपीजे कलाम के विचारों पर आधारित राष्ट्रीय अवार्ड विजेता फिल्म ‘आई एम कलाम’ बनाने वाले नील माधव पांडया मानते हैं कि दर्शक वास्तविक जीवन के नायकों को देखना चाहते हैं। वह कहते हैं, “मैं इसे रचनात्मक आइडिया की कमी नहीं कहूंगा। वास्तव में वास्तविक जीवन के चरित्रों को सिनेमा में देखने में बहुत आनंद आता है। लेकिन कहीं-न-कहीं मुझे लगता है कि हमारे पास बहुत सारे रीयल लाइफ हीरो नहीं हैं।” युद्ध नायक संदीप उन्नी कृष्णन के जीवनपर आने वाली फिल्म‘मेजर’ में मुख्य भूमिका निभाने वाले तेलुगूस्टार अदीवी सेष मानते हैं कि बायोपिक मात्र रचनात्मक समझौते से कहीं ज्यादा होते हैं। वह कहते हैं कि बायोपिक में कहानी को अपनी इच्छा या पसंद के हिसाब से काट छांट करने के लिए बहुत कम गुंजाइश होती है। उस व्यक्ति विशेष के जीवन के सम्मान के प्रति आपकी जिम्मेदारी बहुत ज्यादा होती है क्योंकि अंततः आप उसके जीवनसे संबंधित घटनाओं को एक उपयुक्त श्रद्धांजलि देने का प्रयास कर रहे होते हो। मुझे तो यह चलन ज्यादा खूबसूरत लगता है कि आप अतीत में भूली गई या गलत समझी गई जीवन कहानियों को सामने ला रहे हैं।
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गौर हरि दास्तान, मी सिंधुताई सपकल और डॉक्टर रखमाबाई जैसी बहुत सारी बायोपिक निर्देशित करने वाले अनंत महादेव मानते हैं कि बायोपिक का जीवन सार्वकालिक होता है। वह कहते हैं, “ बायोपिक कोई नया चलन नहीं है। ‘डॉक्टर कोटनिस की अमर कहानी’, ‘सरदार’, ‘गांधी’ और केजी जॉर्जकी ‘लेखाज देथ: एनएन टोल्ड स्टोरी’, जो कि स्टारडम के अंदर का सच है, जैसी बहुत सारे सच्चे फिल्मी चित्रण भी किए गए हैं।” फिर भी अनंत मानते हैं कि बायोपिक के चलनपर लगाम लगानी चाहिए। वह कहते हैं, “हाल ही में भूतपूर्व खेल सितारों, सेनेट्रीपेड के नव प्रवर्तकों और यहां तक वर्तमान कलाकारों का जीवन चरित्र बायोपिक का विषय बन चुके हैं। इन फिल्मों में भावनाओं को बहुत तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया है जिसके कारण जिज्ञासु या सीधे- सादे दर्शक स्वीकार कर लेते हैं।” अनंत मानते हैं कि बायोपिक एक नैतिक और रचनात्मक जिम्मेदारी है। वह कहते हैं, “जब मैं गुमनाम होने के बावजूद महत्वपूर्ण नायकों जैसे सिंधुताई सपकल और गौर हरिदास, दोनों ही जीवित हैं या फिर लिजेंडरी और कम चर्चित डॉक्टर रखमाबाई पर बायोपिक बनाता हूं तो मेरी यह जिम्मेदारी होती है किमैं यह सुनिश्चित करूं कि मैं जहां तक संभव हो सके प्रमाणिक रहूं और अपने चरित्रों को केवल महान ही नहीं अपितु उनके दोषों के साथ प्रस्तुत करूं। चाहे हम घटनाओं का नाटकीय रूपांतरणकर रहे हों तो भी हमारे रुखकी सच्चाई बायोपिक की आवश्यकता होती है। लेकिन बायोपिक आज एक फैशन बन चुके हैं, यह एक मीडीओकर (औसत) सोच है, चाहे आप गंभीर सिनेमा के लिए एक आडंबर युक्त गुहार की क्यों न लगा रहे हों।”
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बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल के जीवन पर फिल्म बना रहे अमोल गुप्ते मानते हैं कि बायोपिक आज के समय का सच है। मदर टेरेसा के जीवनपर फिल्म बनाने के इच्छुक राकेश ओमप्रकाश मेहरा कहते हैं कि सुविख्यात चरित्रों पर सिनेमा बनाने की प्रक्रिया को इस देश में प्रचलित व्यवहार बनने में समय लगेगा। क्या खिलाड़ियों पर बनी बायोपिक का एक बिकने बाले फॉर्मूले के रूप में परिवर्तित होने का खतरा नहीं है? राकेश ओमप्रकाश मेहरा बायोपिक में आए क्रमिक विकास की बढ़त को पैसा बनाने के लिए चालाकी से तोड़ने-मरोड़ ने की क्रिया मानने से इनकार करते हैं। वह कहते हैं, “फॉर्मूला-जैसा कुछ नहीं होता। फिल्म या तो अच्छी होती या फिर बुरी होती है। मानवीय दृष्टिकोण को जरूर खंगालना चाहिए। मिल्खा जी की कहानी विभाजन के दौरान जिस पीड़ा से गुजरती है, वह पूरे वैश्विक समुदाय से जाकर कहीं न कहीं जुड़ती है। इसीलिए कार्ल लुइस ‘भाग मिल्खा भाग’ फिल्म देखने के बाद मिल्खा जी से मिलने गए।”
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केतन मेहता की ‘दशरथ मांझी: द माउनटेनमैन’ और नंदिता दास की ‘मंटो’ फिल्मों में अभिनय कर चुके बेहतरीन अदाकार नवाजुद्दीन सिद्दीकी कहते हैं, “दशरथ मांझी या मंटो-जैसे किसी वास्तविक जीवन चरित्र को निभाना आसान नहीं है।” हंसल मेहता कहते हैं कि बायोपिक महत्वपूर्ण, प्रासंगिक और अपरिहार्य हैं। बहुचर्चित बायोपिक ‘पानसिंह तोमर’ के निर्देशक तिग्मांशु धूलिया ऐसा मानते हैं कि बायोपिक बनाने के लिए केवल बॉक्स ऑफिस की समझ नहीं बल्कि आपके अंदर कलात्मक समझ भी होनी चाहिए। फिल्म आलोचक राजा सेनका मानना है कि बायोपिक की बॉलीवुड के लिए अपनी ही उपयोगिता होती है। वह कहते हैं, “बायोपिक एक कलाकार को माध्यम बनाती है ताकि वह एक सुप्रसिद्ध व्यक्तित्व को नकल कर सके। सच्ची उपलब्धि की कहानी सुनाने के लिए बायोपिक बनाने वाले दर्शकों से त्वरित विश्वसनीयता का लाभ उठाने का प्रयास करते हैं। साथ ही निर्माता भी यह मानते हैं कि एक अच्छी या लोकप्रिय जीवन कहानी पकी-पकाई होती है और इसके लिए किसी प्लॉट की भी आवश्यकता नहीं होती।
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