सबसे पहले तो हमें सेंसर बोर्ड का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उसने बगैर किसी उहापोह के इस फिल्म को रिलीज़ होने दिया। अब हम आते हैं हिंदी कमर्शियल सिनेमा की इस हैरतंगेज़ और असंगत प्रवृत्ति पर। एक स्त्री विरोधी नितांत सेक्सिस्ट फिल्म ‘कबीर सिंह’ (जो बॉक्स ऑफिस पर काफी कमा रही है) के तुरंत बाद एक सार्थक और असलियत को असरदार तरीके से दर्शाने वाली फिल्म आई है, ‘आर्टिकल 15’ ये फिल्म न सिर्फ हमारे समाज को दीमक की तरह खाते हुए जातिगत भेदभाव को जस का तस उधेड़ कर रख देती है बल्कि लोकतंत्र और समानता के हमारे दोहरे मापदंड को भी प्रभावपूर्ण तरीके से पेश करती है। दिलचस्प बात ये है कि ऐसा बगैर किसी लफ्फाजी, या मेलोड्रामा के किया गया है।
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अनुभव सिन्हा ने बतौर निर्देशक फिल्म में परिपक्वता का परिचय दिया है। इससे पहले उनकी फिल्म आई थी ‘मुल्क’ जो, हालांकि चर्चा में रही और ठीकठाक कारोबार भी किया, बहुत सारे संवादों से भरी थी। ‘आर्टिकल 15’ इस मायने में अलग है। इसमें हर चीज़ काफ़ी मंद स्वर में है जैसे आजकल विरोध के उठते स्वर। लेकिन विजुअल के स्तर पर ये फिल्म शब्दों से ज्यादा बयाँ कर जाती है।
एक पेड़ पर लटकती दो लड़कियों की लाश और उसके करीब ही रखी सीढ़ी का रोंगटे खड़े कर देने वाला दृश्य हो या फिर उत्तर भारत के किसी अलग थलग गाँव के दृश्य, निर्देशक जातिगत समीकरणों को महज़ गाँव, खेत, गाँव के करीब दलदल धुएं और धुंध के दृश्यों के ज़रिये ज़बरदस्त तरीके से स्थापित करता है। ये एक अजीब सा अनिश्त्सूचक माहौल न सिर्फ द्रवित करता है बल्कि ये भी स्पष्ट कर देता है कि हमारे समाज में आजादी के इतने सालों बाद भी स्थिति ख़ास बदली नहीं है।
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ये निर्देशक अनुभव सिन्हा की खासियत बनती जा रही है कि कहानी धीरे धीरे आगे बढ़ती है लेकिन कहीं भी उबाऊ नहीं होती, बल्कि धीरे धीरे अपनी गिरफ्त में इस तरह बाँध लेती है कि आखिर तक आते आते आपको फिल्म के पूरे माहौल में घुटन महसूस होने लगे। लेकिन, क्या ये वही घुटन नहीं है जो हमारे समाज का एक वर्ग रोज़ाना महसूस करता है, झेलता है, जो समाज के इतने दूर हाशिये पर है कि हमें लगता है वो जिंदा नहीं हैं उनका कोई वजूद ही नहीं है।
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फिल्म शुरू होती है तो लगता है कि एक थ्रिलर है, जो कि ये है लेकिन कहानी में एक राजनीतिक तेवर लगातार झलकता रहता है; एक आई पी एस अफसर अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) की पोस्टिंग एक छोटे से गाँव में होती है जहाँ तीन दलित लड़कियां दो दिन से गायब हैं। अगले ही दिन उनमें से दो की लाश पेड़ से लटकती मिलती है। तीसरी लड़की का कोई अता-पता नहीं। जब ये पुलिस अफसर उस तीसरी लड़की का पता लगाने और उसे ढूंढ निकलने का निश्चय कर लेता है तो जातिगत भेदभाव, शोषण और राजनीति का वो दहला देने वाला गुण्ताड़ा सामने आता है, जिसमें दरअसल हमारा समाज तब्दील हो चुका है।
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दलित-ऊंची जाति के गठबंधन की राजनीति के रिफरेन्स भी हैं। ‘हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए सभी को एक होना होगा!” ये नारा भी है जो कहीं ना कहीं ‘हिन्दू धर्म खतरे में है’ वाली राजनीति को प्रतिबिंबित करता है। लेकिन, राजनीतिक रिफरेन्स से ज्यादा जो परेशां करता है वो ये कि जाति के नाम पर भेदभाव और छुआछूत हमारे दिमाग में इतनी गहरे पैठ कर गयी है कि उसे हम अपनी संस्कृति समझने लगे हैं। फिल्म के संवाद बहुत लाउड नहीं ना ही बहुत लम्बे हैं, छोटे और सटीक संवादों का प्रभावपूर्ण इस्तेमाल किया गया है लेकिन संवादों से ज्यादा जो चुप्पी है, एक खास तरह का सन्नाटा, जो कहीं अधिक खिन्न और ज्यादा देर तक सालता रहता है।
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आयुष्मान खुराना अपनी सभी फिल्मों में लीक से हट कर असरदार अभिनय करते रहे हैं चाहें फ़िल्में हिट हुयी हों या नहीं। लेकिन अभी तक उनकी फ़िल्में और किरदार सामाजिक विषयों के इर्दगिर्द घुमते रहे। ये उनकी पहली फिल्म है जिसमे राजनीतिक अंडर टोन्स हैं, और उन्होंने अपना किरदार बखूबी निभाया है। वो कहीं भी उस टिपिकल बॉलीवुड हीरो की तरह नहीं लगे हैं जो व्यवस्था के खिलाफ़ विद्रोह कर देता है। बल्कि वो उस शख्स की तरह ज्यादा लगते हैं जो अपनी शहरी और धनाड्य पृष्ठभूमि और उस यथार्थ के बीच फंसा हुआ है जिससे वो इस गाँव में रूबरू होता है।
लेकिन जिस अभिनेता की वाकई तारीफ करनी चाहिए और जिसे आज तक उसकी योग्यता के हिसाब से किरदार नहीं मिला है वो है मुहम्मद जीशान अय्यूब। एक लोकप्रिय युवा दलित नेता की भूमिका में जीशान अय्यूब एक यादगार छाप छोड़ जाते हैं, खासकर एक छोटे से दृश्य में जहाँ दलित नेता एक आम ज़िन्दगी बिताने की चाहत का इज़हार करता है।
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संक्षेप में, अगर आप इतने समझदार हैं कि ‘कबीर सिंह को देखते हुए आपको ये एहसास हुआ कि इस फिल्म में कुछ गंभीर गड़बड़ है तो आपको निश्चित तौर पर ये फिल्म देखनी चाहिए। और अगर आप ये नहीं भी महसूस कर पाए तो उस असलियत को देखने समझने के लिए फिल्म ज़रूर देखें जिससे हम आँखें छिपाए घुमते हैं।
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