आयुष्मान खुराना लीक से अलग विषयों पर फिल्में और भूमिकाएं करने के लिए मशहूर हैं। निर्देशक श्रीराम राघवन बेहद अच्छी और दिलचस्प सस्पेंस थ्रिलर बनाने के लिए जाने जाते हैं। जॉनी गद्दार, बदलापुर और रमण राघव- ये सारी फिल्में आपको आखिर तक बांधे रहती हैं। ‘अंधाधुन’ भी एक थ्रिलर फिल्म है, लेकिन फिल्म शुरू होती है, किसी रोमांटिक फिल्म की तरह। जब तक कहानी रहस्यपूर्ण मोड़ तक पहुंचती है और इसके पेंच परत दर परत खुलने लगते हैं, तब तक दर्शक की दिलचस्पी कम होने लगती है। लेकिन जरा सब्र करें तो आप चौंक कर फिल्म को एक बार फिर पूरे ध्यान से देखने लगते हैं।
अंधाधुन और दूसरी सस्पेंस कमर्शियल फिल्मों में फर्क ये है कि इसमें पूरी कहानी बहुत सहज ढंग से खुलती है। किरदार नाटकीय नहीं लगते जबकि नायक ही अंधे होने का नाटक करता है और आखिरकार अंधा हो जाता है, या नहीं- इस उहापोह में फिल्म तमाम पेंचों और किरदारों के जरिये आपको बांधे रखती है। ये फिल्म अपने सभी किरदारों के एक खास परिस्थिति में रहने के लिए मजबूर होने की वजह से कुछ-कुछ 70 के दशक में बनी थ्रिलर फिल्म ‘धुंध’ की याद दिला जाती है इस अर्थ में कि सभी किरदार आयुष्मान खुराना (और राघवन की भी) की फिल्मों की एक और खासियत ये है कि एक हाई टेंशन ड्रामा के दौरान कॉमिक रिलीफ लगातार कहानी में बना रहता है।
लेकिन ज़रा ठहरें, ये श्रीराम राघवन की फिल्म है तो किरदार इतने सरल और एक आयामी नहीं होंगे-ये तो पक्का है। हर किरदार में दुष्टता या नीचता का तत्व या एक ग्रे शेड ज़रूर है, हालांकि एस एच ओ मनोहर और डॉक्टर स्वामी और मौसी जैसे किरदार बाकी रहस्यमय और जटिल चरित्रों के बीच होते जटिल अंतर्द्वंद के बीच पूरी कहानी में अधूरी दास्तान लिए किरदार लगते हैं। कहीं कहीं फिल्म अतियथार्थवादी स्तर पर पहुंच जाती है और शक, छल और खामियों से भरे पूरे माहौल में सरल और सकारात्मक इंसानी गुण हलके पड़ जाते हैं। ये श्रीराम राघवन की दुनिया है, जो बदकिस्मती से असल ज़िन्दगी से बहुत अलग नहीं है।
बहुत दुखद और कठिन हालात में भी निर्देशक स्थिति की विडम्बना को बखूबी उभारता है इतना कि आप मुस्कुराए बगैर नहीं रह पाएंगे। जब एक दुष्ट डॉक्टर जबरन नायक की किडनी निकालने की कोशिश करता है जो अब तक वाकई अंधा हो चूका है, तो डॉक्टर के फ़ोन पर बजती कॉलर टोन के तौर पर शिव स्तुति और पृष्ठभूमि में शिव जी पर एक पुराना फ़िल्मी गाना पूरी सिचुएशन को कॉमिक बना देता है।
बरसों बाद अनिल धवन को एक ऐसे अधेड़ फ़िल्मी शख्सियत के तौर पर देखना जो बरसों पहले एक सफल हीरो रहा है और अब अपने अतीत के ग्लेमर में ही जी रहा है, दिलचस्प अनुभव है। एक महत्वाकांक्षी लेकिन असफल हीरोइन सिमी के तौर पर तब्बू, जिसे फिल्म में ‘लेडी मेकबेथ’ के नाम से भी पुकारा गया है, प्रभावपूर्ण हैं और वे इस तरह के जटिल, ग्रे और बहुआयामी किरदार निभाने में माहिर भी रही हैं।
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संक्षेप में आप ये भी कह सकते हैं कि ये फिल्म एक ऐसे संगीतकार (कलाकार) के बारे में है जो अपने संगीत को संवेदनशील बनाने और उसमे नए प्रयोग करने के लिए अँधा होने का नाटक करता है, जिसकी वजह से वो एक के बाद एक अनचाही और खतरनाक स्थितियों में फंसता चला जाता है।सो, हाशिये पर एक ये सवाल भी कौंधता रहता है कि क्या किसी कलाकार को अपनी कला में नए प्रयोग करने के लिए इस तरह के चांस लेने चाहिए।
सिमी (तब्बू) कहती भी है –कि तुम अपनी कला से मतलब रखो, प्रयोग क्या करना है? लेकिन अगर कला में नए प्रयोग, नये आयाम, रचनात्मकता के नए पहलू नहीं खोजे जायेंगे तो कला की क्या एहमियत रह जायेगी? ये सवाल भी अन्धाधुन अप्रत्यक्ष रूप से उठाती है. (अगर आप फिल्म को एक दूसरे डायमेंशन में समझना चाहें तो) एक फ्रेंच शॉर्ट फिल्म द पियानो ट्यूनर से प्रेरित ये फिल्म कुल मिला कर बहुत दिलचस्प फिल्म है अगर आप शुरुआत में थोड़ा सा सब्र धरें तो।
एक संगीतकार के रूप में आयुष्मान खुराना, वेस्टर्न क्लासिकल इंस्ट्रुमेंटल के कुछ अंशों के साथ अमित त्रिवेदी का संगीत प्रभावशाली है।
सत्तर के दशक की फिल्मों के संगीत के साथ वेस्टर्न क्लासिकल म्यूजिक का कुशल संगम लगातार नए मोड़ों पर घूमती, किरदारों के नए पहलुओं से जूझती कहानी की पृष्ठभूमि को असरदार तरीके से पेश करता है। कुल मिला कर फिल्म दिलचस्प है, ज़रूर देखें।
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