आइए, स्वादिष्ट व्यंजनों और मोक्ष-स्थल के रूप में प्रसिद्ध वीआईपी शहर काशी का रुख करें। एक गुजराती कहावत हैः सूरत नो जिमण, काशी नो मरण। यानी, सभी अच्छे लोगों को सूरत में भोजन और काशी में मृत्यु की कामना करनी चाहिए। काशी के लोग मीठी जुबान बोलने वाले गुजराती व्यापारियों से भी यह बात लंबे अरसे से सुनते आए हैं कि सूरत स्वादिष्ट व्यंजनों की नगरी है, तो काशी ऐसी जगह जहां आकर मरने से मोक्ष मिल जाए। हिरणी-सी आंखों वाली युवती को संबोधित एक उद्धरण में मत्स्य पुराण में कहा गया हैः
देवो, देवी नदी गंगा, मिष्टमन्नंशुभा गति:,
वारणस्यांविशालाक्षिवास: कस्यन रोचते?
अर्थात् कौन ऐसी भूमि पर नहीं रहना चाहेगा जहां पवित्र गंगा, देव, सबसे मीठे अनाज और मोक्ष- सभी एक साथ उपलब्ध हों! दंत कथाओं में एक और कहानी प्रचलित हैः
चना, चबैना, गंगजल, जो पुरवे करतार,
काशी कबहुं न छोड़िए, विश्वनाथ दरबार।
हर भोजन के साथ गंगाजल उपलब्ध कराने वाले इस शहर को जब भगवान शिव नहीं छोड़ पाए तो यहां के भुने चने और अन्न के दिव्य स्वाद को आम आदमी भला कैसे नजरअंदाज कर सकता है?
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मत्स्य पुराण भी इसकी पुष्टि करता है। इसमें काशी के ही होकर रह गए विभिन्न संप्रदायों के भिक्षुओं के विलक्षण आहार का वर्णन है। कुछ ऐसे थे जो केवल घास और पत्तियों पर रहते थे। अन्य (अश्मकुट) कुश घास की नोक से पानी के बूंदों का सेवन कर जीवित रहते। ये सभी नदी के किनारे पत्थरों पर सोते और वहीं ध्यान करते। इनके अतिरिक्त यहां बड़ी संख्या में छात्र रहा करते थे जो आम तौर पर बड़े ही गरीब घरों से होते जिन्हें शास्त्र ज्ञान के लिए काशी भेजा जाता। उनका दाना-पानी उनके गुरुओं की रसोई से चलता।
मध्ययुग के दौरान ब्राह्मण गुरुओं में जात-पात का गहरा आग्रह हुआ करता था। 17वीं शताब्दी में यशोविजय नाम के एक जैन छात्र का उल्लेख मिलता है जो अदालत की सेवाओं में शामिल होना चाहता था। उसने गुरु से पूछा, “मेरी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति कौन करेगा?” जवाब मिला- “मैं, अगर तुम ब्राह्मण हो।” लड़के को गुरु की रसोई में जाने के लिए ब्राह्मण होने का स्वांग करना पड़ा और बाद में वह कहता है कि उसने गुरु की पत्नी से रसोई की अग्नि को प्रज्ज्वलित करना सीखा। गुरु माता कुछ छात्रों की मदद से रसोई चलाया करती थीं। छात्र खाने की सामग्री खरीद कर लाते और खाना पकाने के लिए अग्नि प्रज्ज्वलित करते।
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इसी अवधि के दौरान गोविंद चंद्र देव ने सुनिश्चित किया कि अध्यापन के पेशे में काशी के ब्राह्मणों की श्रेष्ठता बनी रहे और उन्हें नियमित रूप से उपहार और नकद मिलते रहें। कहा जाता है कि उन्होंने ही भव्य ब्राह्मण भोज (ब्रह्म भोज) की शुरुआत की जिसमें तमाम तरह के पारंपरिक व्यंजन परोसे जाते और बाद में लड्डू। इसके लिए पैसे तीर्थ यात्रा और इससे जुड़े सभी अनुष्ठानों को पूरा कर लेने वाले धनी जजमान करते। लेकिन ऐसे भी तमाम लोग थे जो इस तरह के आयोजन की तीखी आलोचना करते थे। प्रबोध चंद्रोदय के लेखक और शैव से वैष्णव बने क्षेमेंद्र ऐसे ही लोगों में एक थे। 11वीं सदी तक काशी में हिंदू रीति-रिवाजों में पैसे का बोलबाला हो चुका था और क्षेमेंद्र ऐसे लालच और लोलुपता का खुलकर मजाक उड़ाया करते थे। वह एक उम्रदराज वेश्या को उद्धृत करते हैं जो यह कहते हुए काशी जाने में असमर्थता जताती है कि वहां जाने का मतलब उसे प्याज खाना छोड़ना पड़ेगा। क्षेमेंद्र ने यह भी लिखा कि कैसे वज्रयानियों की वजह से बौद्ध धर्म गिरावट पर था क्योंकि वे शराब पीने और मांस खाने से परहेज नहीं करते थे। इसका असर यह हुआ कि कई क्षुब्ध बौद्धों ने सुदूर पूर्वी या पश्चिमी देशों का रुख कर लिया।
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12वीं शताब्दी के पाली ग्रंथों में खाना पकाने के बर्तन और चावल उबालने के तरीके का जिक्र मिलता है। ज्यादातर लोग भूनकर पीसे गए अनाज (सत्तू) या चावल को उबले हुए साग और घी या घी और चीनी के साथ मिलाकर खाते थे। चावल मुख्य आहार के रूप में खासा लोकप्रिय था लेकिन पूरी या पोली भी पसंदीदा थी। खिचड़ी, खीर और सत्तू को दूध-चीनी के साथ मिलाकर बड़े शौक से खाया जाता था।
काशी में मिठाइयों की बहुत मांग थी (मीठ जेवण मांग)। ऐसे भी संदर्भ हैं कि अक्सर मुफ्त जिमने वाले इस भय से भोजन के साथ पानी नहीं पीते थे कि इससे पेट की जो जगह खाने से भरती, वह पानी से भर जाएगी और उन्हें फिर जल्दी भूख लग जाएगी। स्थानीय भाषा की पुस्तक ‘उंक्ति व्यक्ति प्रकरण’ से इस बात का भी खुलासा होता है कि काशी में हर कोई शाकाहारी ही नहीं था, वहां मांस खाने वाले भी रहते थे। मांस को घी और मसालों के साथ मिट्टी की हांडी में रख इसे सील करके धीमी आंच पर पकाने से बना मांस गरमागरम पके चावल और घी के साथ इतना स्वादिष्ट होता है कि भूख भड़क उठे
जालें लागें पाली ढांका हांडी मांस चुर,
भातं मासं लोण घिउ एतवनें भूखा गिग लगलाव!
काशी के लोग विविधताओं को पसंद करते थे क्योंकि हमेशा एक ही तरह की साग-सब्जी खाने से उन्हें ऊब होती थी।
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दक्षिण भारतीय ब्राह्मण वरदराज की दिलचस्प पुस्तक है ‘गीरवन पदमंजरी’ जो जाति और भोजन पर चर्चा के साथ शुरू और समाप्त होती है। एक भट्ट ब्राह्मण वरदराज को आमंत्रित करता है और वह तब अचंभित रह जाता है जब वरदराज उसके वंश, पूजा-स्थलों और पते के बारे में बता देता है। ब्राह्मण घर लौटकर अपने बेटे और पत्नी को दक्षिण (कर्नाटक) के इस महान संन्यासी के बारे में बताता है। पुजारी चाहता है कि दक्षिण का वह संन्यासी उसकी रसोई में बने काशी के सर्वोत्तम व्यंजनों का स्वाद ले।
एक शानदार भोज की भूमिका तैयार!
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