म्यांमार हमारा पड़ोसी एशियाई देश है, जो पहले बर्मा नाम से जाना जाता था। बर्मा का मोन राज्य समुद्र के किनारे बसा हुआ है। भारत के बौद्ध धर्मप्रचारक समुद्री मार्ग से चलकर, सदियों पहले बर्मा पहुंच चुके थे। इन प्रचारकों के पास अपनी भाषा और कादम्ब नामक लिपि थी। इस तरह मोन के पराक्रमी राजा अनोरठा को विजय के परिणाम स्वरूप भूमि और निधियां ही नहीं मिलीं, बौद्ध धर्म, बौद्ध ग्रंथ, बौद्ध गुरु और बर्मी भाषा की मौजूदा लिपि भी उपलब्ध हो गई थी।
1886 तक संपूर्ण बर्मा पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया था। 1937 से पहले ब्रिटिश सरकार ने बर्मा को भारत का ही एक राज्य घोषित कर रखा था, लेकिन बाद में उसे भारत से अलग करके, ब्रिटिश क्राउन कालोनी (उपनिवेश) बना दिया गया। जनवरी 1886 में तीसरे बर्मी-ब्रिटिश युद्ध में बर्मा की पराजय होने के बाद अंग्रेजों के साथ आने वाले भारतीय सैनिक, दफ्तरों में काम करने वाले कर्मचारी और मजदूर वर्ग के लोग भारत से लाकर बर्मा में बसा दिए गए। रंगून के दूर-दराज इलाकों में भी भारतीय-बस्तियां आबाद होती गईं। बहुत से गांव और नगरों में भारतीय आबादी की बहुलता हो गई। कुछ भारतीय आप्रवासियों के मन में यह विचार आया कि हमें अपनी भाषा, संस्कृति और साहित्य की रक्षा और विकास के लिए प्रयास करना चाहिए।
‘म्यांमार हिंदी लिटरेरी सोसायटी’ के सेक्रेटरी ब्रजेश वर्मा बताते हैं कि सबसे पहले 1904-05 में म्यांमार में आर्य समाज के माध्यम से हिंदी भाषा और साहित्य के संरक्षण तथा विकास के लिए प्रयत्न आरंभ हुए थे। आर्य समाज द्वारा हवन-यज्ञ आदि के साथ विभिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड कराए जाते थे। ऐसी गतिविधियां हिंदी भाषा के विकास का भी एक कारण बनीं। भारत से कोई शिक्षित व्यक्ति म्यांमार-भ्रमण पर आता, तो उससे अनुरोध किया जाता था कि वह वहां के भारतीय बच्चों को हिंदी भाषा का शिक्षण प्रदान करे। किसी मंदिर के प्रांगण अथवा चौपाल में हिंदी भाषा की कक्षाएं शुरू हो जातीं। उन दिनों हिंदी भाषा के प्रचार और विकास के लिए कोई व्यवस्थित और संस्थागत ढांचा म्यांमार में नहीं था। सब कुछ अनौपचारिक और स्वयंसेवी भावना से ही संचालित था।
औपचारिक रूप से म्यांमार में हिंदी भाषा का शिक्षण 1916 में ही शुरू हो पाया। माण्डले शहर में आर्य समाज के प्रयत्नों से डीएवी स्कूल की स्थापना हुई। यही वह जगह थी, जहां व्यवस्थित रूप से उच्च कोटि का हिंदी शिक्षण किया जाता था। बाद में यही स्कूल डीएवी कॉलेज बना। साल 1918 में राणा बैजनाथ सिंह ने रंगून में पहली हिंदी पाठशाला की स्थापना की, जो बाद में डीएवी पाठशाला कहलाई। 1919 में मारवाड़ी स्कूल की स्थापना हुई। इसके बाद तो हिंदी पाठषालाओं की स्थापना का क्रम ही शुरु हो गया। इन सभी पाठषालाओं में उस समय हिंदी भाषा को द्वितीय भाषा के रूप में पढ़ाया जाता था। भारत से म्यांमार गए पंडित हरिवदन शर्मा ने जियावडी में श्रीब्राह्मण महासभा स्कूल खोला। यह दूसरे विश्वयुद्ध के पूर्व वाली सरकार से मान्यता प्राप्त करने वाला अकेला विद्यालय हुआ करता था। यही स्कूल महात्मा गांधी की हत्या हो जाने के बाद ‘गांधी हिंदी महाविद्यालय’ बना।
म्यांमार में बहुत से हिन्दी विद्यालय खोले गए थे, जैसे रंगून में जिसे अब यंगून कहा जाता है, में आईईएस खालसा हाई स्कूल, उभ्एख हाई स्कूल, श्रीगुजराती हाई स्कूल और टौंजी में गांधी मेमोरियल हाई स्कूल। कोलकाता विष्वविद्यालय से संबद्ध यंगून के टैगोर कॉलेज में बीए स्तर तक हिन्दी भाषा का अध्यापन होने लगा था। अन्य शहरों यथा, मीख्ना, लाश्यो, बसीन (पतैं), हेंजड़ा, प्रोम, छौक, श्वेबो आदि में भी हिन्दी स्कूल खुल गए थे। म्यांमार में हिन्दी स्कूलों की तादाद एक समय 360 तक पहुंच गई थी।
हिन्दी भाषा की पाठ्य पुस्तकों के आरंभिक लेखन का काम भी पं. हरिवदन शर्मा द्वारा संपन्न किया गया। बाद में पाठ्य पुस्तक निर्धारण समिति का निर्माण हुआ। उसके बाद ही हिन्दी भाषा पर आधारित 9वीं और 10वीं कक्षा की प्राइवेट परीक्षाओं का दौर शुरू हुआ। बेहतर हिन्दी शिक्षकों को तैयार करने के लिए एलीमेंटरी ट्रेनिंग स्कूल भी खुला। दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो जाने से हिन्दी शिक्षा का विकास क्रम कमजोर भी पड़ा और कहीं-कहीं तो वह थम ही गया। इस समय वहां पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा द्वारा संचालित हिन्दी की विविध परीक्षाओं का संचालन भी होने लगा है।
हिन्दी साहित्य के पक्षधर पं. हरिवदन शर्मा के प्रयासों से ही 1923 में ‘म्यांमार हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ की स्थापना हुई। सम्मेलन के सभापति के रूप में सत्यनारायण गोयनका का हिन्दी साहित्य के प्रति महत्वपूर्ण योगदान है। सम्मेलन नियमित रूप से साहित्यिक गोष्ठियां आयोजित करता है। भारत से आने वाले साहित्यकारों और हिंदी भाषा के विद्वानों के लिए कार्यक्रमों का आयोजन और अन्य व्यवस्थाएं करना उसी की जिम्मेदारी है।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन, कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’, श्याम नारायण पाण्डेय, कथाकार जैनेंद्र कुमार, दैनिक आज के संपादक लक्ष्मी शंकर व्यास, शरतचंद्र के जीवन पर आधारित कृति‘ आवारा मसीहा’ के रचनाकार विष्णु प्रभाकर, यशपाल जैन और भदंत आनंद कौशल्यायन जैसे साहित्यकारों के म्यांमार आगमन और म्यांमार निवासी भारतीयों को उन्हें सुनने-जानने का अवसर उपलब्ध कराने का श्रेय म्यांमार हिन्दी साहित्य सम्मेलन और सत्यनारायण गोयनका को ही जाता है।
भारतीय साहित्य का बर्मी में अनुवादः
भारतीय साहित्य के प्रति प्रेम रखने वाले बर्मी भाषी साहित्यकारों और पाठकों की भी झलक म्यांमार में देखने को मिलती है। बर्मी भाषा के विद्वान ऊ पारगु ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने भारत आकर काशी विश्वविद्यालय में हिन्दी भाषा और साहित्य का गहन अध्ययन किया। उनके द्वारा जिन ग्रंथों का अनुवाद किया जा चुका है, उनमें प्रमुख हैं, बोल्गा से गंगा, सिंह सेनापति, चित्रलेखा, दिव्या, बुद्ध की डायरी, आकाशदीप, चारुमित्रा, लंकादीप विजय, संघमित्रा, शशिलेखा, अशोक आदि। इसके अलावा उन्होंने संस्कृत ग्रंथों पंचतंत्र और हितोपदेश का अनुवाद भी बर्मी भाषा में किया है। उनके अलावा बर्मी भाषा के साहित्यकार ऊ ताम्या, ऊ तजीं, ऊ तानठुन और ऊ सानठुन ने भी हिंदी साहित्य का अनुवाद कर, बर्मी भाषियों को हिंदी साहित्य से परिचित कराने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इसी तरह भिक्षुऊ कित्तिमा ने बाल्मीकि रामायाण तथा सत्यार्थ प्रकाश का अनुवाद किया है। प्रेमचंद के गोदान का अनुवाद भारतीय मूल के बर्मी विद्वान चंद्रप्रकाश ने किया है।
म्यांमार में हिन्दी भाषा का पहला हिंदी मासिक पत्र ‘विश्वदूत’ था, बाद में वह दैनिक भी हुआ, परंतु अंततः बंद हो गया। इसके अलावा हिन्दी संदेश, बर्मा बंधु, बर्मा समाचार, हिंदी पत्रिका, परिवर्तन, प्राची-प्रकाश, नवजीवन तथा प्रवासी शीर्षक पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशनों का एक दौर भी म्यांमार में रहा। इनके अलावा ब्रह्मभूमि, जागृति पत्रिका और सत्य ज्योति मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी म्यांमार में होता था। ब्रजेश वर्मा म्यांमार साहित्य सम्मेलन की पत्रिका ‘देवभाषा’ का संपादन-प्रकाशन करते हैं।
पुस्तकालयों की भूमिका
म्यांमार में हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास के लिए वहां के पुस्तकालयों ने भी खासा योगदान किया है। अनेक संस्थाओं और व्यक्तियों ने छोटे-बड़े पुस्तकालय स्थापित किए हैं। बंगला, गुजराती, मारवाड़ी, तेलुगु, तमिल आदिभाषा-भाषियों के अपने पुस्तकालय हैं। भारतीय दूतावास का भी एक समृद्ध पुस्तकालय है। एक म्यांमारी महिला लायब्रेरियन हैं। मैंने पुस्तकालय में भारत में हिन्दी भाषा में प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकाएं करीने से सजी हुई देखीं। प्रेमचंद से लेकर कमलेश्वर तक की किताबें वहां पर हैं।
हिन्दी विकास पर अवरोध भी
1966 में म्यांमार की तत्कालीन फौजी सरकार द्वारा शिक्षा का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था। इसके कारण वहां चलने वाले हिन्दी भाषा के स्कूल और महाविद्यालय सरकारी हो गए। सरकारी शिक्षा संस्थाओं में हिन्दी भाषा की शिक्षा के लिए कोई प्रावधान नहीं रखा गया। म्यांमार में सरकारी स्कूलों से परीक्षा उत्तीर्ण करने का प्रमाणपत्र होने पर ही आगे की शिक्षा प्राप्त की जा सकती है और सरकारी स्कूलों में हिन्दी भाषा नहीं पढ़ाई जाती। ऐसे में हिंदी भाषा का किसी म्यांमार निवासी के लिए उसकी आजीविका और करियर के साथ कोई रिश्ता शेष नहीं रहा।
इससे हिन्दी भाषा की शिक्षा और उसके विकास की अविरल घारा को एक धक्का तो अवश्य पहुंचा, परंतु अपनी भाषा, साहित्य और संस्कृति के दीवानों ने इससे हार नहीं मानी। धैर्य नहीं खोया। हुआ यह कि अनौपचारिक रूप से हिंदी स्कूल, मंदिरों के प्रांगणों और चैपालों में फिर से पहुंच गए। म्यांमार हिन्दी साहित्य सम्मेलन गर्मी की छुट्टियों में आवासीय स्कूल चलाता है और बच्चे राष्ट्र भाषा प्रचार समिति, वर्धा, भारत की परीक्षाएं देते हैं। इस प्रकार वे हिन्दी और उसकी संस्कृति से जुड़े हुए हैं।
म्यांमार के भारतीय दूतावास के हिंदी अध्यापक डॉ. रामनिवास राम भी दूतावास में ही हिन्दी का अध्यापन करते हैं। उन्होंने दूतावास की ओर से प्रयास करके वहां के विश्वविद्यालय में हिंदी का अध्यापन आरंभ कराने की स्वीकृति प्राप्त कर ली है। अभी वहां पर हिन्दी को अंग्रेजी भाषा वाले विदेषी विभाग से जोड़ा गया है। म्यांमार में लोकतंत्र लौटने और भारत सरकार के साथ वहां की सरकार के आत्मीय संबंधों के चलते, एक बार फिर से हिन्दी भाषा के पक्ष में सकारात्मक वातावरण बन गया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि म्यांमार के विश्वविद्यालयों में जल्दी ही हिन्दी भाषा और साहित्य का विधिवत अध्ययन-अध्यापन भी आरंभ हो जाएगा।
(नवजीवन के लिए वरिष्ठ कथाकार राजेंद्र चंद्रकांत राय का आलेख। लेखक हाल ही में म्यांमार की यात्रा से लौटे हैं)
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