अ से अन्न, अन्न यानी ब्रह्म। अन्न वह आधारभूत तत्व है जो मानव शरीर में ऊर्जा देता है। इसी बात को संत ज्ञानेश्वर मराठी में कहते हैं:
हे ना जाणावे साधारण,अन्न ब्रह्मरूप जाण
भारत में अन्न ईसा के ढाई हजार साल पहले से उगाया जाता रहा है। इतिहासकारों ने कालीबंगा में घग्गर नदी के किनारे की बलुआई जमीन पर बैलों को जोतकर हल का उपयोग करके व्यवस्थित रूप से खाद्यान्न उगाए जाने के प्रमाण पाए हैं। मिट्टी के छोटे-छोटे खिलौना हल भी मिले हैं जिससे तब के नन्हे-मुन्ने खेलते रहे होंगे। पाटलिपुत्र के शासक चंद्रगुप्त मौर्य न केवल अन्न बल्कि इसे उगाने वालों की अहमियत को जानते-समझते थे इसीलिए उन्हें सैन्य सेवा से छूट दे रखी थी।
सांसारिक गतिविधियों से अलग रहने वाले भिक्षुओं और भिक्षुणियों के प्रतिसम्मान की अभिव्यक्ति के रूप में गृहस्थ उन्हें भोजन दिया करते। बुद्ध का कहना था कि गृहस्थों से भोजन की भीख मांगना भिक्षुओं के लिए विनम्रता के बौद्ध अनुशासन का अंग है। भिक्षुओं को अहिंसक होने की शपथ दिलाई जाती थी लेकिन उनसे अपेक्षा होती थी कि भिक्षा के रूप में मिली कोई भी चीज- चाहे वह मांस या मछली ही क्यों नहो, खाई जानी चाहिए। इस प्रकार बौद्धों ने किसी भी प्राणी को मारने से तो मना किया लेकिन भारतीय जनजातियों और समुदायों की खान-पान की अलग-अलग आदतों के अनुसार सभी प्रकार के भोजन खाने को उचित ठहराया। यह कहना गलत न होगा कि बुद्ध ने सभी प्रकार के भोजन- शाकाहारी हो या मांसाहारी- को वर्जनाओं के बंधन से मुक्त किया। आज हम इस हद तक प्रतिगामी हो चुके हैं कि हमारे कई राज्य कुपोषित स्कूली बच्चों को उनके मिड-डे मील में अंडा देने से इस आधार पर मना कर देते हैं कि उन्हें केवल शाकाहारी भोजन ही परोसा जाना चाहिए।
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एक बच्चे के लिए अन्न से जुड़ा पहला पवित्र समारोह ‘अन्न प्राशन’ होता है जिसमें 6-9 महीने के बच्चे को पहली बार अनाज खिलाया जाता है। आम तौर पर अन्नप्राशन में चावल के साथ दूध और शहद, गुड़ या चीनी से बनी खीर का निवाला खिलाया जाता है। दिलचस्प बात है कि सूत्र साहित्य में इस समारोह के दौरान बच्चे को मांस का टुकड़ा खिलाए जाने का भी उल्लेख है। गृह्य सूत्र में कहा गया है कि बच्चे को जिस तरह का मांसाहारी भोजन दिया जाता है, उसी से उसकी प्रवृत्ति निर्धारित होती है। जैसे, भेड़ का मांस बच्चे को शारीरिक रूप से मजबूत बनाता है, तीतर का मांस साधुता प्रदा नकरता है तो मृदु स्वभाव सुनिश्चित करने के लिए मछली खिलाई जाती है। चावल और घी सौंदर्य लाते हैं।
जौ प्राचीनतम ज्ञात प्रमुख आहार है। ऋग्वेद में इसे यव कहा गया है। इसे भून कर और पीसकर सत्तू बनाकर खाया जाता था, जैसा आज भी उत्तर पूर्वी हिस्सों में होता है। जौ से अपूपा बनता है जिसमें इसका घोल बनाकर इसे तलकर मिठास के लिए इसे चीनी की चाशनी या शहद में डुबोया जाता है। इसे पूआ और सुस्वादु माल पुए का आरंभिक संस्करण कह सकते हैं। आयुर्वेद में जौ को बीमार और कमजोर लोगों के लिए औषधीय महत्व वाला माना जाता है। सुश्रुत ने इसे हमेशा कमजोरी या प्यासा महसूस करने वालों के लिए, भूख न लगने के इलाज के लिए कारगर बताया है। मोहन जो दड़ो के समय तक गेहूं और चना भी अनाज में शामिल हो चुके थे जो बाद में भी रहे।
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भारत के उपजाऊ मैदानों में कृषि के विकास के साथ, किसानों और गृहस्थों- दोनों के लिए अनाज का भंडारण महत्वपूर्ण हो गया। राज्य को बेचे जाने वाले अनाज के भंडारण के लिए बड़ी- बड़ी संरचनाएं बनाई गईं जिनका रख रखाव राज्य करता था। हड़प्पा में ऐसा ही एक केंद्रीय अन्न भंडार मिला है। मिट्टी के विशालकाय चबूतरे पर दो अनाज खंड थे जिसमें हर में छह कक्ष थे। अन्न भंडार का मुंह नदी की ओर था जिससे लगता है कि यहां अनाज नावों से लाया जाता होगा। इमारतों के अवशेषों की दरारों में जले हुए अनाज के टुकड़े पाए गए हैं और उस समय भी अकाल आते थे।
यही सिलसिला मध्यकाल में भी रहा। राज्य अनाज का भंडारण करता और विकट परिस्थितियों में भूखे लोगों के बीच इनका वितरण किया करता। 14वीं शताब्दी में इब्ने बतूता लिखते हैं कि मोहम्मद बिन तुगलक ने ऐसी ही एक खाद्य आपात स्थिति में गरीबों को खाद्यान्न उपलब्ध कराया। सौंदर्य-संवेदी और अपने समय को कलमबद्ध करने वाले अमीर खुसरो भी इसकी पुष्टि करते हैं। तब अनाज भंडार को ‘खत्ती’ कहते थे जो आज भी गड्ढे के लिए इस्तेमाल किया जाता है। आज के ग्रामीण खत्ती की तरह ही यह भूसे के मिश्रण से तैयार कुआं होता था। इसमें अनाज भरकर इसके मुंह को मिट्टी, भूसे और गोबर से बंद कर दिया जाता था। मौसमी मार से यह किस हद तक सुरक्षित होता था, इसका प्रमाण इब्ने बतूता का यह लिखना है कि उनकी यात्रा के दौरान अकाल पड़ा और राज्य के खत्ती में 90 साल से रखे गए चावल को निकालकर लोगों में बांटा गया था। उस चावल का रंग काला था लेकिन सुस्वादु था और इतने समय बाद भी वह सुगंधित बना हुआ था।
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आज वजन को नियंत्रित रखने के प्रति गंभीर लोगों में लोकप्रिय ओट्स या जौ भूमध्य सागरीय इलाके से भारत आया। इसे पहले मुख्यतः शाही घोड़ों के भोजन के तौर पर उगाया जाता था। सरसों, तिल और अलसी-जैसे तिलहनों के बारे में सिंधु घाटी के समय भी लोगों को जानकारी थी। दक्षिण भारत के लोग नारियल से काफी पहले से परिचित थे। ईसा पूर्व 500 में ही तेल निकालने के लिए पेराई उपकरणों का उपयोग किया जा रहा था।
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हमारी शब्दावली में ‘अन्न’ एक दिलचस्प शब्द और कहावत के रूप में शामिल रहा। सामंती युग के दौरान राजा या जमींदार को अन्नदाता कहा जाता था। आज चतुर नेता वोट बैंक के तौर पर काश्तकारों को ‘अन्नदाता’ कहकर संबोधित करते हैं। किसी की ओर से उपहार में दिए गए अन्न को खाने से आजीवन वफादारी निभानी होती थी। किसी अन्नदाता के प्रति गहरी कृतज्ञता जताने की सामान्य अभिव्यक्ति है- आपका अन्न खाया है सरकार! मौजूदा सरकार भी राशन की दुकानों के माध्यम से गरीबों को अन्न के मुफ्त ‘उपहार’ को “राशन” मान रही है और सरकार ने हमारे शहरों को मुफ्त राशन, मुफ्त टीके, मुफ्त दवाओं के लिए नेताओं को बधाई देते पोस्टरों से पाट रखा है। मुफ्त टीके? मुफ्त दवाएं? यह अपने आप में शोध का विषय है कि अन्न भी गरीबों तक पहुंच रहा है या नहीं।
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