गीर्वाण मंजरी संस्कृत में लिखी गई किताब है जिसमें लेखक वरदराज कटाक्षपूर्ण तरीके से उस सदी के काशी के संपन्न ब्राह्मण वर्ग की दैनिकी खान-पान वगैरह का बेबाक चित्रण करता है जिसकी कहानी प्रसिद्ध विद्वान डॉ. मोतीचंद्र ने जैसी पढ़ी तैसी, अपनी पुरानी काशी पर लिखे ग्रंथ में बखानी है। कथा व्यंग्यपूर्ण लहजे में काशी की संपदा, भोजन की विविधता और मेहमान नवाजी के साथ उस समय के खाते-पीते समाज में व्याप्त लालच और फूहड़पन पर भी प्रकाश डालती है।
एक ब्राह्मण सुबह-सुबह उठता है और संस्कृत के कुछ श्लोक का उच्चारण करते हुए पत्नी को नहाने के सामान देने को कहता है जिससे वह जल्दी से मणिकर्णिका घाट जाकर स्नान कर ले। घर में दीये की रोशनी भी नहीं है और घर से निकलते-निकलते वह पत्नी को ताकीद करता है कि यह दावत का दिन है, इसलिए उन्हें जल्दी काम शुरू करना चाहिए और अपने सभी रिश्तेदारों और उनके भी रिश्तेदारों को बड़े भोज के लिए न्योतना चाहिए।
फिर वह 18 साल के बेटे को जगाने के लिए आवाज लगाता है कि उठे और चौखंबा बाजार से जरूरी सामान की खरीदारी कर ले और इसके लिए जनानखाने में रखे लकड़ी के चोर बक्से से चांदी के दो सिक्के निकाल ले। सामान की सूची में पूरनपोली बनाने के लिए ढाई सेर घी, सफेद चीनी और चने की दाल और इनके अलावा हींग, साबुत जीरा, लौंग, दालचीनी, इलायची जैसे मसाले शामिल हैं। फिर वह पूजा की चीजों के लिए अगली दुकान पर चला जाए। उसकी बगल वाली दुकान से आटा ले लेकिन तभी जब आश्वस्त हो जाए कि आटा पत्थर की साफ की गई चक्की में पीसा गया और फिर उसे दो बार चलनी से छाना गया हो। उसके बाद वह मंडी जाकर ताजी सब्जियां खरीदे। जड़ वाली सब्जियां, खीरा, दो प्रकार के हरे और पीले कद्दू, बैगन, कुंदरू, परवल, करेला, कच्चे केले, कटहल और कुरकुरे पकोड़े बनाने के लिए अरवी के पत्ते काल भैरव की दुकान से ही ले। और हां, इमली भी ले ले क्योंकि इसके बिना दावत कैसी!
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जब बेचैन बेटा कहता है कि वह इतना सब याद कैसे रखेगा, तो ब्राह्मण सारी चीजें लिख लेने को कहते हुए चीखता है कि पढ़े-लिखे तो हो न? झल्लाया ब्राह्मण कहता है मेरी किस्मत ही खराब है कि जितनी मूढ़ पत्नी है, उतना ही बेटा। अब मैं और इंतजार नहीं कर सकता... कहता हुआ वह गंगा में डुबकी लगाने भागता है।
घाट पर पहुंचकर ब्राह्मण जरूरी संख्या में भीख नहीं मांगने वाले ब्राह्मणों को न्योतता है। अब उसे एक संन्यासी का इंतजाम करना है। इसके लिए वह एक दक्षिण भारतीय मठ में जाता है। देखकर ही लग जाता है कि वह एक संपन्न आलसी सा पंडा है। वह दक्षिण के दूसरे पंडों की तुलना में कहीं कम रूढ़िवादी है। ब्राह्मण पंडा उस संन्यासी को खास बनारसी ब्राह्मण भोज के लिए अपने घर आमंत्रित करता है। इस पर मूलतः विंध्य के दक्षिण का वह संन्यासी पंडा ब्राह्मण को कहता है कि इस बात का ख्याल रखना होगा कि उसे कमतर लोगों के साथ भोजन न परोसा जाए। वह संन्यासी अशिष्टता की हद तक जाकर उस पंडा ब्राह्मण से उसकी जाति, गोत्र, मूल स्थान, पता, घर अपना है या नहीं, जैसे तीखे सवाल कर डालता है। उस संन्यासी की जुबान तभी बंद होती है जब वह चालाक ब्राह्मण अपना नाम बताता है: अलर्षियुद्धखजगरुडध्वजपुरं दरवाजपेयी!
बाद में महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण ढुंढिराज ने मराठी में इस पुस्तक पर टीका लिखी जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि वरदराज महाराष्ट्र मूल के थे। वह महाराष्ट्र और बंगाल से आकर काशी में बस जाने वाले बहुतेरे ब्राह्मणों में से एक थे। बंगाली ब्राह्मणों के लंबे नामों और उपनामों का एक दिलचस्प पहलू भी है। जब भी कर्नाटक की तरफ का कोई ब्राह्मण उनसे ज्यादा पूछताछ करता, ये चतुर ब्राह्मण अपना ऐसा नाम बताते जिसका उच्चारण ही नहीं किया जा सके। 17वीं सदी के लेखक वेंकटाध्वरि के अनुसार, दक्षिणी ब्राह्मण इस पर भड़क उठते थे।
आदर्श सार्वभौमिक व्यवहार (विश्वगुणादर्शचंपू) पर पुस्तक में दो गंधर्व कलियुग के ऊपर इसलिए रोष जताते हैं कि इस काल में काशी के ब्राह्मण गैर-हिंदुओं और निचली जातियों के साथ घुलने-मिलने और स्पर्श करने के मामले में ज्यादा ही उदार हो गए हैं और वे छूआछूत का वैसे पालन नहीं करते जैसे करना चाहिए। कभी-कभार वे ‘दोस्तों’ के साथ मांस और मदिरा के सेवन के लिए शहर से बाहर तक चले जाते हैं!
भोज-भात और उसमें भाग लेने के मामले में तमाम क्षेत्रीय और उत्तर- दक्षिण की राजनीति हुआ करती थी।
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खैर, काशी के ब्राह्मण भोज की ओर लौटें! आयोजन शुरू हो चुका है। मेहमानों को सबसे पहले चिवड़ा और उसके साथ लकड़ी के कटोरे में छाछ और नमक परोसा जाता है। प्रत्येक आमंत्रित व्यक्ति को अपने हाथ और पैर धोने के बाद एक पंक्ति में आसन दिया गया था और इसके साथ ही पीने को एक ग्लास पानी। उसके बाद हर व्यक्ति के सामने बड़ी पत्तल और पत्तों से बनी सात कटोरियां रख दी जाती हैं। सबसे पहले खट्टे और नमकीन की बारी। खट्टे आम के टुकड़े, इमली, नींबू, बेल, आंवला और अदरक परोसे जाते हैं। इसके बाद हल्की पकी हुई सब्जियां, साथ में करेले के तले हुए चिप्स, डीप फ्राई बैगन और भरवां कचौरी। फिर मीठे की बारी। चावल की खीर और दूध में पका हुआ गेहूं। उसके बाद मेहमानों को शुद्ध घी में तले हुए दो पापड़ परोसे गए। अंतिम भोजन चावल और दाल था। इसकी शुरुआत दही-चावल से हुई, इसके बाद चावल दाल और घी के साथ। दाल से बने और भी व्यंजन थे: काले चने की दाल, हरे चने की दाल और चने की दाल से बने तीन तरह के वड़े।
इसके बाद मिठाई फिर वापस आ गई। इस बार अनाज से बनी हुई। चूरमा से बने लड्डू, पूआ, हलवा और अनरसा (चावल, तिल और चीनी से बना मीठा कुरकुरी तला हुआ केक)। आखिर में ताजा उबले दूध से भरा गिलास। यह आम ब्राह्मणों के लिए था। संन्यासी को केवल वही भोजन परोसा जाता था जिसकी अनुमति उनके संप्रदायमें दी गई होती थी।
दावत में शामिल होने से पहले मेहमानों ने अपनी अंजुरी में पानी लेकर चारों ओर छिड़क कर घर और मेजबान परिवार को आशीर्वाद दिया। घर की महिला और उसके बच्चों ने खाना परोसा। यजमानों द्वारा बार-बार मेहमानों से आग्रह किया गया कि वे श्रद्धापूर्वक और आराम से भोजन ग्रहण करें।
भोजन के बाद हाथ धोकर वे दूसरे कमरे में चले गए जहां उन्हें मुखशुद्धि के लिए टूथ पिक के साथ सुगंधित बनारसी पान, इलायची और लौंग दिया गया। फिर प्रत्येक अतिथि को नकद में दक्षिणा मिली और पूरे परिवार को उन मेहमानों से मिलने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए बुलाया गया।
आम ब्राह्मणों को विदा कर देने के बाद स्वामीजी (संन्यासी) का दूसरी जगह विशेष तौर पर आदर- सत्कार किया गया। उनके धड़ के ऊपरी हिस्से पर चंदन का लेप लगाकर उन्हें वस्त्र प्रदान किया गया। कर्नाटक के संन्यासी वरदराज कहते हैं, संन्यासी बहुत प्रसन्न हुए और मेजबान की पत्नी को देखकर अर्थपूर्ण तरीके से पूछा कि क्या वह आपकी है? क्या इन्हें कोई संतान है? इस पर मेजबान बड़े ही औदार्य के साथ स्वामी को अपनी छत के नीचे एक स्वच्छ सुगंधित कमरे में उसके साथ एक रात बिताने की पेशकश करता है।
प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है। यह थी गीर्वाणमंजरी से एक भव्य काशी भोज की कथा!
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