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जन्मशती विशेषः रेणु का लेखन अन्याय के खिलाफ खड़ा होने का संदेश है, जिसकी आज सबसे ज्यादा जरूरत है

रेणु का पूरा जीवन और लेखन अन्याय, असमानता और तानाशाही के विरोध में और लोकतंत्र तथा आजादी के पक्ष में है। रेणु का व्यक्तित्व गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, राहुल सांकृत्यायन और रामवृक्ष बेनीपुरी की परंपरा से मेल खाता है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

मैंने आजादी की लड़ाई आज के भारत के लिए नहीं लड़ी थी। अन्याय और भ्रष्टाचार अब तक मेरे लेखन का विषय रहा है और मैं सपने देखता हूं कि यह कब खत्म हो।’ ये पंक्तियां 23 अप्रैल, 1974 को फणीश्वरनाथ रेणु ने ‘दिनमान’ में लिखी थीं। जिन लोगों ने उस जमाने में ‘दिनमान’ के अंक देखे होंगे, रेणु जी के रिपोर्ताज उन्हें आज भी याद होंगे। रेणु की ये पंक्तियां आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी तब थीं। क्योंकि आज के हालात बदले नहीं हैं बल्कि बदतर ही हुए हैं। बदलाव का सपना देखने वाला हर नागरिक आज रेणु की तरह ही सोचता है। रेणु ने तब की हालत से खिन्न होकर ये पंक्तियां लिखी थीं।

लेकिन 45 साल बाद तो अन्याय और दमन और बढ़ा है। भ्रष्टाचार भी संस्थागत हुआ है। सांप्रदायिकता की आग और फासीवादी प्रवृत्तियों की चपेट में पूरा मुल्क आ गया है। आजादी की लड़ाई में भाग लेने वाली वह पीढ़ी अब लगभग खत्म हो गई है, जिसने रेणु की तरह ब्रिटिश शासन का अत्याचार देखा था। वे उस अत्याचार के भुक्तभोगी थे। रेणु के साथ 74 के आंदोलन में भाग लेने वाले कई लोग आज सत्ता में हैं। केंद्र में भी और बिहार में भी। रेणु आज जीवित होते तो उनका मोहभंग हो गया होता। वह फिर अन्याय, दमन और अत्याचार के खिलाफ लड़ते और लिखते।

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दरअसल, रेणु का संपूर्ण जीवन और लेखन अन्याय, असमानता, गैरबराबरी, अत्याचार और तानाशाही के विरोध में और लोकतंत्र तथा आजादी के पक्ष में है। उन्होंने आजादी की लड़ाई में स्कूल में बागी भूमिका निभाई। 42 के आंदोलन में भाग लिया। जेल गए और आजादी के बाद 50 के दशक में नेपाल की सशत्र क्रांति में भाग लिया। भूमिगत रेडियो शुरू करने के अलावा उन्होंने बंदूकें भी चलाईं। किसानों की लड़ाई लड़ते हुए जेल गए। बाद में भी संघर्ष जारी रखा और गिरफ्तार हुए।

इस तरह देखा जाए तो रेणु का व्यक्तित्व गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, राहुल सांकृत्यायन और रामवृक्ष बेनीपुरी की परंपरा से मेल खाता है। उनका कृतित्व प्रेमचंद की परंपरा की अगली कड़ी है। इसमें हिंदुस्तान का गांव तो है ही, उसका लोकमानस भी है। लोक का सौंदर्य है, उसकी चेतना भी। उसका राग-विराग भी। इस अर्थ में वह प्रेमचंद की परंपरा में रहते हुए उनसे थोड़े भिन्न हैं। वह शिवपूजन सहाय और बेनीपुरी की परंपरा के अधिक निकट हैं।

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शिवपूजन बाबू के 1926 में प्रकाशित उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ की आंचलिकता को रेणु ने नया रूप दिया। बेनीपुरी की ‘माटी की मूरतें’ की तरह अपने पात्र गढ़े। रेणु ने लिखा है कि जेल में उन्हें प्रेमचंद का ‘गोदान’, अज्ञेय की ‘शेखरः एक जीवनी’ और टैगोर की किताब पढ़ने को मिली, जिनका उन पर असर हुआ। उन्होंने ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित आत्म परिचय में लिखा था कि वह बचपन में वकील बनना चाहते थे। फिर अपने इलाके सिमराहा का रेलवे स्टेशन मास्टर बनना चाहते थे। उन्हें नियति ने लेखक बना दिया।

रेणु के लेखन की यात्रा भी बहुत दिलचस्प और उतार-चढ़ाव भरी रही है। 1954 में प्रकाशित ‘मैला आंचल’ ने उन्हें बाद में अपार ख्याति दिलाई। उसे छपवाने के लिए पहले पटना के प्रकाशकों के चक्कर लगाते रहे। जब किसी ने नहीं छापा तो उन्हें अपनी पत्नी के गहने गिरवी रखकर खुद छापना पड़ा। नलिन विलोचन शर्मा के रेडियो टॉक ने रेणु को लाइमलाइट में ला दिया। उसे ‘गोदान’ के बाद हिंदी का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास माना गया। रेणु जी का यह उपन्यास एक साल तक गोदाम में पड़ा रहा। नलिन जी की समीक्षाने संजीवनी का काम किया। बाद में राजकमल प्रकाशन ने उसे दोबारा छापा।

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इस उपन्यास के प्रकाशन पर बैंड-बाजे के साथ पटना साइंस कॉलेज से रेलवे स्टेशन तक एक जुलूस निकाला गया, जिसमें रेणु जी को हाथी पर बिठाया गया था। यह हिंदी साहित्य की अभूतपूर्व घटना है। बाद में यह सौभाग्य किसी लेखक को प्राप्त नहीं हुआ। तब सोशल मीडिया नहीं था। न टेलीविजन। फेस्टिवल और बेस्ट सेलर की भी परंपरा नहीं थी। ‘गोदान’, ‘रागदरबारी’ और ‘गुनाहों का देवता’ की तरह यह किताब भी बेस्टसेलर बनी। इस पुस्तक के अंग्रेजी, रूसी, जापानी भाषाओं में अनुवाद हुए।

आखिर ‘मैला आंचल’ की क्या कथा थी जो पाठकों को पसंद आई। क्या वह सिर्फ आंचलिक कथा थी? क्या वह प्रशांत और कमली के प्रेम की कथा भर थी या बावन दास की कथा थी? दरअसल, रेणु ने आजादी की जो लड़ाई लड़ी थी, जो सपने देखे थे, वे उन्हें बाद में टूटते नजर आए थे। गांधी जी के भी सपने टूटे थे। शैलेंद्र ने भी 1948 में ही ऐसी कविताएं लिखीं जिनमें आजादी को व्यर्थ पाया।

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रेणु इसीलिए बार-बार विभिन्न आंदोलनों में भाग लेते रहे। उन्होंने एक बार विधानसभा का भी चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ा और हार गए। उनके समाजवादी गुरु बेनीपुरी जी भी एक बार चुनाव हार गए थे। रेणु को सत्ता का आकर्षण होता तो किसी राजनीतिक दल से टिकट लेने का प्रयास करते या विधान पार्षद बनने का जुगाड़ करते जैसा बिहार में अनेक समाजवादियों ने किया। लेकिन रेणु ने तो आंदोलन के दौरान पद्मश्री ही नहीं लौटाया बल्कि उन्हें जो पेंशन मिलती थी, उसे भी लौटा दिया। तत्कालीन राज्यपाल को इस संदर्भ में लिखा गया उनका पत्र उनके आदर्शों की कहानी आज भी कहता है।

रेणु को मृदुल स्वभाव का लेखक माना गया। निर्मल वर्मा ने उन्हें संत स्वभाव का लेखक माना है। बिहार के दूसरे संत लेखक शिवपूजन सहाय ने रेणु की प्रतिभा को तब ही पहचान लिया था और युवा लेखक का पुरस्कार बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की ओर से दिया था। इतना ही नहीं, ‘मैला आंचल’ और ‘परती परिकथा’ के विमोचन समारोह में उन्हें आशीर्वाद भी दिया था।

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रेणु ऊपर से भले ही संत थे, भीतर से विद्रोही थे। उनमें एक गजब किस्म की ईमानदारी थी। एक ऐसी संवेदनशीलता जो आज खोजने पर कम मिलती है। वह अपने जीवन में भी ‘तीसरी कसम’ के हीरामन ‘रसप्रिया’ के मृदंगिया और ‘ठेस’ के सिरचन थे, जो उनकी कहानियों के यादगार पात्र हैं। रेणु प्रेम और सौंदर्य के भी उपासक हैं। उनकी कहानियों में निश्छल प्रेम, समर्पण और गहरा लगाव तथा ईमानदारी सब जगह व्याप्त है।

रेणु की प्रासंगिकता बस इतनी भर नहीं है। वह कोई पेशेवर पत्रकार नहीं थे। लेकिन उनके रिपोर्ताज उनके भीतर छिपे एक पत्रकार की भी शिनाख्त करते हैं। उन्होंने हिंदी में रिपोर्ताज विधा को भी जन्म दिया। 1944 में ‘विश्व मित्र’ में उनका पहला रिपोर्ताज छपा था जिसे उस अखबार के संपादक ने लेख समझकर छापा था। रेणु के रिपोर्ताज इतने लोकप्रिय हुए कि अज्ञेय और रघुवीर सहाय ने ‘दिनमान’ में रेणु के रिपोर्ताज छापे। वह सृजनात्मक किस्म की रिपोर्ट थी। इसलिए रिपोर्ताज नाम से लोकप्रिय हुई और एक नई विधा बनी। कोसी नदी उनके लेखन के केंद्र में रही। परती परिकथा के बारे में एक रेडियो टॉक में उन्होंने कोसी नदी से अपने रिश्तों का जिक्र किया है।

इस तरह रेणु का संपूर्ण जीवन और लेखन मनुष्यता, संवेदनशीलता और प्रेम को बचाने के साथ हर नागरिक को अन्याय के खिलाफ खड़ा होने का संदेश देता है, जिसकी आज बेहद जरूरत है।

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