दुकानों से पटी वह भीड़ भरी एक तंग गली थी, जिसपर एक दूसरे से हिल-मिल कर बने हुए मकानों की कतारों में किसी एक की खिड़की/बालकनी/बरामदे पर चाइनीज एलइडी से लिखे गए 56 इंच के बड़े-बड़े अक्षरों में “देश-भक्त ही देशभक्त” का साइन बोर्ड लिब-डिब-लिब-डिब करके जल बुझ रहा था। उसके नीचे लिखा था-
“दंगों, हत्याओं, फेक फेसबुक पोस्ट के लिए आर्डर बुक किये जाते हैं”
पर यह स्थान गुप्त था। न ही गली के नुक्कड़ पर बसे पुलिस पोस्ट के संतरी को इसके बारे में पता था और न ही स्थानीय लोगों को, क्योंकि जब पत्रकार महोदय ने इसका पता पूछा था, तब यहां के ज्यादातर लोगों ने केवल दो शब्दों में इसका पता बताया था:
“आगे है”
खैर ,पत्रकार महोदय सीढ़ियों से ऊपर पहुंचे और उन्होंने एक खुले हुए दरवाजे में कुण्डी खड़-खड़ाई। कुछ देर बाद वहां एक मुस्टंडा प्रकट हुआ और आते ही पूछा-
“कोड वर्ड प्लीज?”
पत्रकार महोदय ने कहा- “वन्दे मातरम”
मुस्टंडा ....खुश हुआ ! पर उतना भी नहीं जितना मोगैम्बो हुआ करता था। सो उसने कहा – “यह तो लॉग इन पासवर्ड है. ट्रांसक्सन पासवर्ड बोलो…
पत्रकार महोदय ने अपना होमवर्क शायद ठीक से नहीं किया था, सो वह बगलें झांकने लगे। आखिर में उन्होंने अंदाजे में एक तीर मारा - “स्साली कुतिया, कुत्ते की मौत मरी”
कहीं पर “टींक” की आवाज आई, जैसा की आजकल आधार कार्ड के वेरिफिकेशन पर उंगली का छाप देने पर आती है। मुस्टंडे ने कहा
“आपका स्वागत है शिरिमान!”
संडास के बदबू से बजबजाते एक तंग गलियारे को पार कर वह दोनों एक कमरे में दाखिल हुए जहां दीवारों पर किसी छप्पन-इन्चीय छाती वाले नेता की तस्वीरें कतार में टंगी थीं। मोनोटोनी या एकरसता ब्रेक करने के लिए एक अन्य व्यक्ति की भी तस्वीर भी थी, जिसने इस गर्मी में भी एक शाल लपेटा हुआ था।
सामने टीवी पर “अब तक छप्पन” फिल्म चल रही थी। सामने छप्पन भोग और VAT-56 (किसी ने 9 को 6 कर दिया था) का खम्भा रखा था। यानी मामला फुल्टू, “छप्पन-मय” था।
खैर बातचीत शुरु हुई।
पत्रकार महोदय ने पूछा, “आपके द्वारा की गयी हत्याओं का आधार क्या होता है , यानि आप आर्डर कैसे लेते हो?”
उनमें से एक ने कहा, “ हमारे पास देश-प्रेमियों और देश –द्रोहियों का एक डेटा बैंक है। जानकारी वहीं से मिलती है, बाकी किसे कब “खल्लास” करना है उसका प्लान भी हम पहले से बनाते हैं।”
पत्रकार ने आश्चर्य मिश्रित कंठ से कहा, “ कलम-कसम इतना होमवर्क तो हम पत्रकार भी नहीं करते। गुरु थोड़ा डिटेल में बताओ।”
किसी बुद्धिजीवी से अपने लिए “गुरु” शब्द सुन कर उसे उतनी ही खुशी हुई जितनी लाल बत्ती लांघने के बाद पकड़े गए किसी मोटरिये से किसी सिपाही को अपने लिए “थानेदार” शब्द सुन कर होती है।
वह बोला, “ हम पहले हवा का रुख समझने की कोशिश करते हैं, मसलन, अब गुरमेहर कौर का मामला ले लो। उसने देश पर कीचड़ उछाला। सो हम कैसे चुप बैठते, सो हमने पहले पोस्ट करना शुरू किया कि उसकी कैसे “ली” जा सकती है।“
“भाई, थोड़ी शब्दों पर ध्यान दो। भूल गए कि, आपकी कॉल ट्रेनिंग परपस के लिए रिकार्ड की जा सकती है।” वहां बैठे दूसरे ने उसे चेताया। फिर खुद बोलने लगा, “अब देशद्रोही के लिए और कहा भी क्या जाय? खैर हमने पहले फेसबुक पर पोस्ट करना शुरू किया कि उस देशद्रोही लड़की का रेप कैसे किया जा सकता है। एकदम आंखों देखी बयान जैसा। नेट पर आपको ऐसी काफी कहानियों की कई वेबसाईट मिल ही जाएंगी...हे...हे...हे..., बस नाम ही तो बदलना होता है। बाकी हर “चीज” तो एक ही होती है, हे...हे...हे..”
पहले ने कहा , “हम देखते हैं की साले सूडो-सेकुलर का क्या रिएक्शन है। अगर वह मोमबत्ती लेकर निकल पड़े, तब समझो रास्ता साफ है। एक तरफ इंडिया गेट पर उनकी मोमबत्ती-बत्ती रैली, दूसरी तरफ हमारे काम करने की “बस्सी” शैली...”
पत्रकार महोदय कभी इतने पालिटिकल जार्गन में नहीं पड़े थे। यहां इस्तेमाल हो रही शब्दावली उनके स्वभावगत एएनआई, पीटीआई, भाषा की शब्दावली के बाहर की थी। सो उन्होंने मासूमियत से पूछा, “ भाई यह "बस्सी शैली" क्या है? तनिक एक्सप्लेन करें।”
पहले ने कहा, “यह तो सिंपल है। दिल्ली में जेएनयू – रामजस के छात्र को पहले हमने देश भक्त वकीलों के साथ मिलकर बलभर पीटा, फिर बाद में पुलिस ने। उसके बाद पुलिस ने बलवा करने के चार्ज में उन्हें अन्दर कर दिया। जनता चुप रही। हैदराबाद यूनीवर्सिटी हॉस्टल में पुलिस ने डंडे बरसा दिए, लड़कियों तक को नहीं बख्शा...जनता फिर भी चुप रही...फेसबुक पर गुरमेहर को लोग गाली बकते रहे और पुलिस गाली बकने वालों और धमकी देने वालों के साथ “छिपन-छिपाई” का खेल खेलती रही...जनता फिर भी चुप रही।”
दूसरे ने कहा, “एक ओर जंतर-मंतर पर देशद्रोहियों की काएं-काएं, तो दूसरी और पूरे देश में हमारे “तंतर” की धाएं-धाएं। कभी किसी रोहित वेमुल्ला को मरने पर मजबूर किया तो कभी किसी नजीब को “गायब” कर दिया।”
पहले ने कहा, “ हमने देखा की गोविंद पनसारे, दाभोलकर को मारने के बाद लोगों ने चूं तक नहीं की। देखा कि कन्हैया के जेल भेजने या नजीब को गायब करने के बाद भी आम जनता खामोश रही, और तो और पहलू, जुनैद को मारने पर भी कुछ नहीं हुआ। तब हम समझ गए कि “अच्छे दिन” आ गए हैं और हमने कुतिया को कुत्ते की मौत मार दिया।”
दूसरे ने कहा, “अब तो एक पैटर्न बन गया है, हम मारते हैं, सरकार चुप रहती है। कुछ लोग मोमबती लेकर इंडिया गेट चले जाते हैं। सरकार भी खुश, हम भी खुश और मोमबत्ती जलाने वाले भी खुश... हे...हे...हे...”
पत्रकार महोदय का टाइम अब खत्म होने को था. उन्होंने अपना आखिरी सवाल पुट किया, “क्या आप वाकई खुश हो?” पत्रकार महोदय के इस सवाल में उस संन्यासी की खनक थी, जिसने आज से युगों पहले किसी दस्यु रत्नाकर से किसी जंगल में पूछा था कि, “क्या तुम्हारे घरवाले तुम्हारे पाप का भागीदार बनेंगे?” पत्रकार महोदय को लगा था की उनके इस सवाल के जवाब में इनका ह्रदय परिवर्तन हो जायेगा, पर यहां ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। शायद ऐसा ही कुछ हुआ।
पहले ने कहा, “कौन खुश है भला आज की तारीख में? मेरा बच्चा गोरखपुर के अस्पताल में बिना आक्सीजन के मर गया। गांव में कोई काम नहीं, पढ़ाई पूरी नहीं कर पाया। अब देश भक्ति के अलावा कोई काम भी नहीं बचा।”
पत्रकार महोदय ने कहा, “पर इस तरह किसी को छुप कर गोली मारना कहां की देश-भक्ति है ?” पत्रकार महोदय के इस सवाल पर कमरे में सन्नाटा छा गया। अचानक कमरे के कोने से सन्नाटे को चीरती एक बूढ़ी आवाज आई, “लगता है आपने हमारे धर्म ग्रंथों को ढंग से नहीं पढ़ा बाबू? थोड़ा उन्हें भी पढ़ लो, आपको आपके प्रश्न का जवाब मिल जायेगा।”
यह एक बूढ़ा था, जिसके गोल चेहेरे पर घनी लंबी सफेद मूंछें किसी सील मछली के दांत जैसी शक्ल दे रही थीं।
पत्रकार महोदय ने सकपका कर पूछा, “ थोड़ा एक्सप्लेन करेंगे श्रीमान?”
बूढ़े सील मछलीनुमा शक्ल ने कहा, “छिप कर मारना हमारी धरोहर है। हमारी पहचान है। त्रेता युग में राम जी ने छिप कर बाली को मारा और द्वापर में कृष्ण जी के कहने पर अर्जुन ने भीष्म को शिखंडी के पीछे छिप कर मारा। यह सब शास्त्र वर्णित है और हमारी धरोहर है। समझे शिरिमान। कलियुग में उसी धरोहर का हम पालन कर रहे हैं। फिर वह दाभोलकर-पंसारे-गौरी को मारना हो या फेसबुक का ट्रोल, हम धर्म राज्य की पुनर्स्थापना के लिए प्रयास कर रहे हैं। वही धर्मराज्य, जहां दलित शम्बूक को वेदपाठ के लिए मार दिया जाता था, द्रौपदी का भरी सभा में कुछ पुरुष चीर हरण करते थे। आज हमारे वीर बच्चे दलितों को मार रहे हैं, आज हमारे वीर बच्चे फेसबुक में किसी का भर्बल चीर हरण कर रहे हैं। अच्छे दिन आ गए हैं, अब धर्मराज्य आने वाला है.””
कमरे में एक बार फिर सन्नाटा छा गया था। अचानक टीवी पर एक विज्ञापन आने लगा-
भांति-भांति के रस पिए पर रास न आया कोई / देशी विदेशी सब लिए पर खास न भाया कोई/ जब असली रस का स्वाद चखा /तब लगा की अब कुछ सही पिया !
बूढ़े सील ने पूछा, “ कुछ सही पियोगे, तभी समझोगे सही और गलत का फर्क। समझे शिरिमान?”
पत्रकार महोदय एकटक कभी उसे तो कभी टीवी पर आ रहे उस विज्ञापन को देखते रहे जहां यूरोपीय वेशभूषा से सने लोग कुछ देशी चीजें बेच रहे थे...
Published: 10 Sep 2017, 12:18 PM IST
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Published: 10 Sep 2017, 12:18 PM IST