अगर किसी से पूछा जाए कि इस बार चुनाव के शोर में मुख्य मुद्दे क्या हैं, तो बात होगी बेरोजगारी की, महिलाओं पर अत्याचार की, लगातार बिगड़ते सामाजिक सौहार्द की या फिर देशभक्ति और देशद्रोह की। ऐसे में अगर कोई लेखक देश के छोटे किसानों की समस्याओं को लेकर कोई स्क्रिप्ट लिखे और कोई नाटक करने वाला प्रख्यात ग्रुप इसे नाटक के रूप में मंचित करने का बीड़ा उठा ले और वह भी दिल्ली में, तो इसे दीवानगी ही कहना पड़ेगा।
मृणाल माथुर का नया नाटक ‘5 रुपया बारह आना’ ऐसे ही कुछ दीवानों का जुनून है जिसे उन्होंने नाटक का रूप दिया है। इस नाटक का इसी महीने की 18 तारीख को प्रीमियर होना है। नाटक के बारे में मृणाल माथुर ने बताया कि हमें इस विषय पर नाटक में किसी बहुत बड़े जनसमर्थन की उम्मीद नहीं है। इसलिए हम लोगों ने इसको बहुत ही छोटे स्तर पर प्रस्तुत करने का निर्णय लिया है। उन्होंने कहा कि वे लोग नाटक को जिस सभागार में दिखाने जा रहे हैं, उस सभागार में केवल 50-60 लोगों के बैठने की व्यवस्था है।
माथुर कहते हैं कि वे देश में किसानों की समस्या पर एक्स्पर्ट नहीं हैं और ना ही वे ऐसा दिखाने का प्रयास कर रहे हैं। वह यह भी बताते हैं कि उन्हें इस नाटक की प्रेरणा पिछली बार दिल्ली में आए किसानों की रैली से मिली। लोगों को अच्छी तरह याद होगा कि अब से कई साल पहले दिल्ली में किसान आंदोलन के नाम पर कैसा हंगामा होता था, जब पश्चिम उत्तर प्रदश के किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के समर्थक पूरे शहर की कानून व्यवस्था को तहस-नहस कर देते थे और शासन को अपनी शर्तें मनवाने के लिए मजबूर करते थे। अगर किसी दूसरे शहर जाने के लिए ये लोग कहीं ट्रेन में घुस गए, तो अंदर बैठी महिलाओं और आरक्षण लिए टिकट धारकों का जीना मुश्किल कर देते थे।
महेंद्र सिंह टिकैत का चर्चित किसान आंदोलन दिसंबर 1989 में हुआ था जब ट्बयूवेल की बिजली दरें बढ़ाने के खिलाफ किसानों ने मुजफ्फरनगर के शामली से दिल्ली तक मार्च किया था। तब टिकैत का आंदोलन इतना प्रभावी हुआ था कि उस समय के उत्तर प्रदश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह को खुद सिसौली जाकर किसानों की मांगों को मानना पड़ा था। इसके अलावा भी कई बार टिकैत के नेतृत्व में किसानों ने दिल्ली में डेरा डाला था जिससे प्रशासन को बहुत फजीहत झेलनी पड़ी थी।
अभी बीते साल 2 अक्टूबर को भी भारतीय किसान यूनियन के नेतृत्व में किसानों ने दिल्ली में दस्तक दी थी। तब भी दिल्ली प्रशासन को किसानों के साथ उलझना पड़ा था। यह किसान यूनियन भी टिकैत की ही है। माथुर बताते हैं कि नवंबर में दिल्ली के रामलीला मैदान से संसद मार्च में आए किसानों ने कुछ अलग ही उदाहरण प्रस्तुत किया और एक तरह से यह साफ किया कि वे कितने अनुशासित और शांतिपूर्ण तरीके से अपनी मांगे रख सकते हैं। उस मार्च के दौरान कुछ जगहों पर ट्रैफिक जाम की स्थिति जरूर उत्पन्न हुई थी लेकिन किसानों ने इसके लिए पहले ही माफी मांग ली थी और लोगों से सहयोग की अपील भी की थी।
देश भर से दिल्ली आए इन किसानों ने प्रदर्शन और आंदोलन की परिभाषा ही बदल दी। इन किसानों ने अपने आंदोलन के तरीके से लोगों को यह समझने का अवसर दिया कि हर किसान आंदोलन वैसा नहीं होता। इन किसानों ने लोगों को यह महसूस कराया कि उन्हें आमलोगों की मुश्किलें भी पता हैं। इसलिए वे अपने आंदोलन के दौरान ऐसा कुछ भी नहीं करेंगे जिससे किसी को परेशानी उठानी पड़े। उनकी हरसंभव कोशिश अपनी बातें लोगों और सरकार के समक्ष शांतिपूर्वक रखने की थी।
इसे न केवल इन किसानों ने पूरी तरह निभाया बल्कि ऐसा उदाहरण भी प्रस्तुत किया जिससे हर आंदोलनकारी कुछ न कुछ सीख सकता है। यही बात इन लेखकों और कलाकारों की टोली को पसंद आ गई और उन्हें उनके साथ सहानुभूति हो गई। शायद पहली बार किसी प्रदर्शनकारी ने अपने पैम्फलेट में लोगों से उनको हुई असिविधा के लिए माफी मांगी थी।
वे सड़क पर लोगों को रोक कर बिना किसी धमकी के अपनी बात उन्हें समझा रहे थे। किसानों का कहना था कि ‘माफ कीजिएगा हमारे इस मार्च से आपको परेशानी हुई होगी। हम किसान हैं आपको तंग करना हमारा इरादा नहीं है। हम खुद बहुत परेशान हैं। सरकार को और आपको अपनी बात सुनाने बहुत दूर से आए हैं। हमें आपका बस एक मिनट चाहिए।‘
इन किसानों की मांग थी कि किसानों की समस्या समझने के लिए संसद का एक विशेष सत्र बुलाया जाए जिसमें सिर्फ दो कानून बनाए जाएं- ‘किसानों को फसल का उचित मुआवजा मिले और उनका कर्ज माफ हो’। लोग यह भी नहीं भूले नहीं होंगे कि बीते नवंबर और फरवरी में पूरे महाराष्ट्र से मुंबई आए किसानों ने बड़ा शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया था। किसानों ने नासिक से लेकर मुंबई तक लॉंग मार्च किया था। राज्य सरकार की वादाखिलाफी और तमाम दमनकारी कार्रवाइयों के विरोध में इस आंदोलन में करीब 50 हजार किसानों ने हिस्सा लिया था।
दरअसल महाराष्ट्र के ये किसान लगातार सरकार के समक्ष अपनी मांगें रख रहे थे, लेकिन उन्हें आश्वासन के अलावा कुछ मिल नहीं रहा था। इससे आजिज आने पर किसानों को मजबूरन आंदोलन का रास्ता अख्तियार करना पड़ा था। करीब 20 वर्षों तक कॉरपोरेट में नौकरी का अनुभव ग्रहण के बाद नाटक के क्षेत्र में आए मृणाल कहते हैं कि इस प्रदर्शन के जरिये पहली बार तब पता चला कि किसानों के साथ कितनी नाइंसाफी हो रही है जब उन्होंने बताया कि जो टमाटर वे पांच रुपये में बेचने को मजबूर हैं वो बाजार में 30 रुपये किलो बिकता है। सेब किसानों से 10 रुपये किलो खरीदा जाता है और बाजार में 110 रुपये किलो बेचा जाता है।
इतना ही नहीं, इस प्रदर्शन के माध्यम से ही पता चल सका कि किसानों को कितनी अंतहीन पीड़ा से गुजरना पड़ रहा है। मृणाल ने इसको लेकर ‘रूबरू’ के नाटककारों से बातचीत की, तो उन सब को लगा की इस पर एक नाटक तो बनता है। उन्होंने बताया कि हम सबको लगा कि शहरों में या टीवी स्टूडियो में जो नामी गिरामी विशेषज्ञ रोज सेमिनार करते हैं और लेख लिखते रहते हैं वो शायद मंझले और बोझ से लदे किसानों की समस्या के मूल में नहीं जा पा रहे हैं। यही कारण है कि इस कृषि प्रधान देश में पिछले 20 साल में करीब तीन लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं।
‘रूबरू’ दिल्ली की प्रसिद्ध सांस्कृतिक संस्था है, जिसने 2014 में ‘रुदाली’ के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज की थी। उसके बाद रूबरू ने ‘अनकही दास्तान’, ‘टुकड़े-टुकड़े धूप’, ‘किरायेदार’, ‘काया’, ‘हीर रांझा’ जैसे नाटकों का मंचन किया है।
किसानों पर केंद्रित इस नाटक ‘5 रुपया 12 आना’ का मुख्य पात्र एक रिपोर्टर है जो रैली में आए किसानों से बातचीत करके उनके दर्द और उनकी समस्याओं को ठीक से समझने की कोशिश करता है। 45 मिनट के इस नाटक में केवल तीन अभिनेता हैं जो अलग-अलग रोल निभा रहे हैं और अपने दशे के अन्नदाता की मजबूरी और उसकी आवाज को लोगों के सामने लाने की कोशिश करेंगे। हो सकता है जो बातें समाज के इतने बड़े वर्ग के धरना, प्रदर्शन और आंदोलन से देश के नेताओं की समझ में नहीं आई, वह किसी अच्छे नाटक के माध्यम से आ जाए। बशर्ते कोई उनकी बात समझना चाहे!
(नवजीवन के लिए अमिताभ श्रीवास्तव की रिपोर्ट)
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