ब्राह्मण वह है जो निस्पृह हो, त्यागी हो और सत्यवादी हो। सच्चे ब्राह्मण महात्मा गांधी हैं, म. (मदनमोहन) मालवीय जी हैं, नेहरू हैं, स. (सरदार) पटेल हैं, स्वामी श्रद्धानन्द हैं। वह नहीं जो प्रातःकाल आपके द्वार आकर करताल बजाते हुए- ‘निर्मलपुत्रं देहि भगवान्’ की हांक लगाने लगते हैं या गणेश-पूजा और गौरी पूजा और अल्लम-गल्लम पूजा कर यजमानों से पैसे रखाते हैं या गंगा में स्नान करनेवालों से दक्षिणा वसूल करते हैं या विद्वान् होकर ठाकुर जी और ठकुराइन जी के शृंगार में अपना कौशल दिखाते हैं या मंदिरों में मखमली गाव तकिये लगाए वेश्याओं का नृत्य देखकर भगवान से लौ लगाते हैं।
… हम जिस राष्ट्रीयता का स्वप्न देख रहे हैं, उसमें तो जन्मगत वर्णों की गंध तक न होगी, वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा जिसमें न कोई ब्राह्मण होगा, न हरिजन, न कायस्थ, न क्षत्रिय। उसमें सभी भारतवासी होंगे, सभी ब्राह्मण होंगे या सभी हरिजन होंगे।
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… हमें किसी व्यक्ति या समाज से कोई द्वेष नहीं, हम अगर टकेपंथीपन का उपहास करते हैं, तो जहां हमारा एक उद्देश्य यह होता है कि समाज में से ऊंच-नीच, पवित्र अपवित्र का ढोंग मिटावें, वहां दूसरा उद्देश्य यह भी होता है कि टकेपंथियों के सामने उनका वास्तविक और कुछ अतिरंजित चित्र रखें जिसमें उन्हें अपने व्यवसाय, अपनी धूर्तता, अपने पाखंड से घृणा और लज्जा उत्पन्न हो और वे उनका परित्याग कर ईमानदारी और सफाई की जिंदगी बसर करें और अंधकार की जगह प्रकाश के स्वयंसेवक बन जायं।
… ऐतिहासिक सत्य चुप-चुप करने से नहीं दब सकता। साहित्य अपने समय का इतिहास होता है, इतिहास से कहीं अधिक सत्य। इसमें शर्माने की बात अवश्य है कि हमारा हिन्दू-समाज क्यों ऐसा गिरा हुआ है और क्यों आंखें बंद करके धूर्तों को अपना पेशवा मान रहा है और क्यों हमारी जाति का एक अंग पाखंड को अपनी जीविका का साधन बनाये हुए हैं, लेकिन केवल शर्माने से तो काम नहीं चलता। इसी अधोगति की दशा सुधार करना है।
(क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं? शीर्षक से प्रेमचंद के विचार भाग-1 में संकलित)
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छूत-छात और जात-पांत का भेद हिन्दू समाज में इतना बद्धमूल हो गया है कि शायद उसका सर्वनाश करके ही छोड़े। खबर है कि किसी स्थान में एक कुलीन हिन्दू स्त्री कुएं पर पानी भरने गई। संयोगवश कुएं में गिर पड़ी। बहुत से लोग तुरंत कुएं पर जमा हो गए और उस औरत को बाहर निकालने का उपाय सोचने लगे, मगर किसी में इतना साहस न था कि कुएं में उतर जाता। वहां कई हरिजन भी जमा हो गए थे। वे कुएं में जाकर उस स्त्री को निकाल लाने को तैयार हुए लेकिन हरिजन कुएं में कैसे जा सकता था। पानी अपवित्र हो जाता। नतीजा यह हुआ कि अभागिनी स्त्री कुएं में मर गई।
क्या छूत का भूत कभी हमारे सिर से न उतरेगा? (14 मई, 1934)
आयोजन - नागेन्द्र
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