‘नैना’ का खुमार अभी उतरा भी नहीं है कि संजीव पालीवाल अपने दूसरे उपन्यास के साथ सामने आ गए हैं। यह लेखकीय उतावलापन है या वह अपने अंदर इतने किरदार और ताने-बाने लिए बैठे हैं, वही बता सकते हैं। लेकिन यहां बात न नैना की हो रही है और न ही संजीव पालीवाल की। बात है पिशाच की...संजीव पालीवाल के दूसरे उपन्यास का यही नाम है। जिस तरह ‘नैना’ ने अपने कातिल की तलाश में समाज और खासतौर से बड़े शहरों की, चमकते चेहरों की रंगत को खरोंच कर सामने रखा था, उसी तरह नया उपन्यास ‘पिशाच’ भी एक खूबसूरत लड़की की प्रतिशोध यात्रा के हर पड़ाव पर आलीशान इमारतों में बसे रिश्तों, ऊंचे रसूखों की हकीकत, चर्चित चेहरों की चमक, खबरों के बाजार की प्रतिद्धंदता, राजनीति और आंदोलनों की हकीकत और साहित्य जगत की शालीनता और कथित विद्रोही तेवरों पर चढ़ी नैतिकता को नोच कर फेंक देता है।
संजीव पालीवाल पत्रकार हैं और बीते करीब तीन दशक से तो टीवी मीडिया से ही जुड़े हैं, ऐसे में पिछले उपन्यास की तरह इस उपन्यास में भी टीवी मीडिया की मौजूदगी होना स्वाभाविक है। अलबत्ता इस बार उन्होंने सोशल मीडिया के प्रभाव को भी तर्कशीलता के साथ उपन्यास में जगह दी है।
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पहले उपन्यास ‘नैना’ के किरदार का तो शुरुआत में ही कत्ल हो जाता है और फिर उसके कातिल की तलाश में हम रिश्तों के खोखलेपन, दोस्ती के फर्जी दावों, शोहरत की कीमत और मीडिया की चमक के अंधेरे से रूबरू होते हैं, उसके बरअकस ‘पिशाच’ का मुख्य किरदार अपने प्रतिकार और प्रतिदंड में पाठकों को समाज के सम्मानीयों की सिहरा देने वाली अंतर्कथा सुनाता है।
यूं तो पिशाच क्राइम थ्रिलर ही कहा जा रहा है, लेकिन इसका कथानक भले ही एक के बाद एक हो रही हत्याओं के रहस्य और सस्पेंस से रोमांचित करता हो, पर पिशाच की पूर्ण कथा दरअसल हमारे आसपास होने वाली अनदेखी सामाजिक, राजनीतिक और सबसे बढ़कर नैतिक घटनाओं को सामने रखता है।
नैना में संजीव पालीवाल ने कहानी गढ़ी थी जो उनके आसपास होने वाली घटनाओं से प्रेरित जान पड़ती थी, लेकिन पिशाच में उन्होंने जिस तरह बिना साहित्यिक हुए बौद्धिकता की भाषा में पिरोया है वह चौंकाता है। जैसा कि आम तौर पर माना जाता है कि हर किसी के पास एक कहानी होती है जिसे जरा सी कोशिश से उपन्यास का रूप दिया जा सकता है। लेकिन जिस त्वरित भाव से लेखक पिशाच लेकर सामने आता है वह कम से कम यह तो बता ही देता है कि हिंदी उपन्यास की दुनिया में एक क्राइम थ्रिलर लेखक ने अपनी आमद का बिगुल फूंक दिया है।
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कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, इंसानी जिंदगी के उलझे रिश्तों के धागे उघड़ने लगते हैं। एक माननीय के हाथों एक बच्ची के यौन शोषण का प्रसंग आपको हिलाता है, वहीं पीड़ित पर इस घटना के मनौवैज्ञानिक प्रभाव से कभी मुक्त न होने की असलियत भी सामने रखता है। आपबीती सुनाते जब एक लड़की बोलती है कि ‘शरीर के जख्म तो भर गए, लेकिन आत्मा के जख्म कभी भर नहीं पाए...मैं न किसी को दोस्त बना सकी और न ही किसी की दोस्त बन सकी....’ तब संभवत: उन बच्चों के अंतर्मन की झलक हमें मिलती है जो किसी अपने, किसी सम्माननीय के हाथों यौन शोषण का शिकार हुए।
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अकसर अपराध कथा में लेखक संवेदनशील मुद्दों को या तो छूकर निकल जाया करता है या उसे शब्दाकिंत करते कब अश्लीलता को छू गया पता नहीं चलता। शायद इसीलिए अपराध कथाओं को हिंदी उपन्यास लेखन में वह स्थान नहीं मिला जिसका वह हकदार है। लेकिन संजीव पालीवाल यौन शोषण, बलात्कार और यहां तक कि हत्या के जिक्र करते हुए भी भाषाई और लेखकीय संवेदनशीलता बनाए रखते हैं। हां, हत्या करने का तरीका बेहद क्रूर और वीभत्स है जो आपको गहरे सिहराता है, लेकिन यह सिहरन उससे कहीं मामूली है जो हत्या के कारणों से पैदा होती है।
पिशाच में अपराध कथा के अनिवार्य तत्व को बखूबी निभाते हुए लेखक अंतिम पृष्ठ तक सस्पेंस को बनाए रखने और पाठकों को बांधे रखते हैं। इसके साथ ही अंत में कुछ ऐसा छोड़ जाते हैं जिससे आभास मिलता है कि लेखक की कलम बेचैन होकर नए कथानक का खाका खींच चुकी है।
(लेखक संजीव पालीवाल का उपन्यास 'पिशाच' एका वेस्टलैंड ने प्रकाशित किया है।
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