किसी भी शख्सि यत के दो पहलू होते हैं। सार्वजनिक व्यक्तित्व और कृतित्व के पहलू को तो अर्जन-सृजन के बहाने छूना आसान होता है। लेकिन व्यक्ति की गहराइयों में समाया दूसरा और लगभग अनछुआ पहलू, जिसकी कई-कई सतहें होती हैं, उसे वही लोग छू पाते हैं जो अत्यंत निकट होते हैं। यह निकटता बहुत दूर रहते हुए भी बनी रहती है। वरना बेहद करीब होने के बावजूद दरमियान एक लंबी और निश्चित दूरी रहती है। सारा दारोमदार परस्पर विश्वास, समझ-बूझ और पात्रता पर टिका होता है।
सर्वस्पर्शी सार्वजनिक पहलू का तो अनेक पड़ताल और विवेचन होता है लेकिन अस्पर्शी अथवा अल्पस्पर्शी बातें पातों के नीचे ढंकी-छुपी रहती हैं। संजोग ही होता है कि कहीं हवा का कोई महीन झोंका आता है। कुछ देर के लिए कुछ पातें सरक जाती हैं और अनछुए पहलू की महक वातावरण को रोमांचित कर जाती है। उत्सुकता रहती है कि अनछुए पहलू को स्पर्श करने वाले हाथ-उंगलियों का कुछ स्पर्श मिल जाए और इस तरह हम अपने महबूब किरदार के भीतर का आत्मीय स्पर्श कर धन्य हो सकें।
विलक्षण कथाशिल्पी और बेजोड़ संपादक रवीन्द्र कालिया पर एकाग्र ‘बनास जन’ पत्रिका का ताजा अंक ‘रवींद्र कालियाः 'समय के बीच, समय के पार' आत्मीय और संग्रहणीय उपक्रम है। महत्वपूर्ण कवि और प्रखर युवा आलोचक प्रो जितेंद्र श्रीवास्तव की कविता- 'रवीन्द्र कालिया को याद करते हुए' की इन पंक्तियों के सहारे इस अंक को पढ़ने-समझने में सचमुच बड़ी सुविधा मिली- 'साहित्य के इतिहास में दर्ज नहीं होतीं ये बातें/ अन्यथा लिखा जाता उनके परिचय में/ कि 'दुश्मनों' से अधिक ठगा उन्हें 'दोस्तों' ने'..... 'मित्रों! स्मृतियां सिर्फ छपास ही नहीं/ मन के उजास की भी होती हैं.. जब सब छूट जाता है/ शब्द भी छोड़ देते हैं साथ/ तब धीरे से समय उतार देता है/ सहचर स्मृतियों को मन की पृथ्वी पर'।
आगे अपने लेख- 'संपादक: रवीन्द्र कालिया' में जितेंद्र लिखते हैं, “रवीन्द्र कालिया ने नयों पर ज्यादा फोकस किया। बड़ा संपादक वह होता है जो बैलेंस बनाता है, लेकिन उस संपादक का योगदान बड़ा होता है जो एक पूरी पीढ़ी तैयार करता है।
तब बरबस '370 रानीमंडी, इलाहाबाद' (अखिलेश), 'भला गर्दिश फलक की चैन देती है किसे' (मधु कांकरिया) और 'रवीन्द्र कालिया जो दे गए हैं' (प्रांजल धर) के संस्मरणों की ओर वापस लौटना अनिवार्य लगता है। जहां कालिया जी एक ऐसे कद्दावर, विराट और सुस्पष्ट दर्पण की भांति हैं जिसके समक्ष पीढ़ियों ने न सिर्फ अपने व्यक्तित्व को पहचाना, निखारा बल्कि अपनी भाव-भंगिमाओं के नये मुहावरे अर्जित कर समाज को सार्थक तथा जरुरी और बहुत जरुरी दे सकने का सामर्थ्य हासिल कर सके।
उत्सुकता, शुरुआती संशय और बहुतेरी जिज्ञासाओं के अपरिचय के फर्श से गहरे परिचय के अर्श तक गुजरते हुए अत्यंत महत्वपूर्ण कथाकार अखिलेश का संस्मरण रवीन्द्र कालिया के कितने ही रूपों का कितने ही रोचक अनुभवों की दास्तां बयां करता है। जीवनसाथी के रुप में रवींद्र जी के उदारमना मिजाज को तुलनात्मक दृष्टि से रेखांकित करते हुए अखिलेश लिखते हैं- 'ममता जी काम पर निकल जाती थीं। वापसी पर कालिया जी इंतजार करते। हमारी ओर पुरुष आक्रामक रहते और स्त्रियां सहमी हुई। यहां दोनों बराबर थे और अगर कभी कभार कुछ हो ही जाता तो ममता जी बराबरी की टक्कर देतीं। यहां कालिया जी के रुप में एक ऐसा अनोखा पुरुष था जो अपनी खिल्ली उड़ाते हुए बताता, "ममता की लोकप्रियता अपरंपार है, मैं कहीं नहीं ठहरता, मुझको तो बहुत से लोग ममता कालिया के पति के रूप में जानते हैं।' साथ ही अखिलेश जी कालिया जी के रचना-संसार की गहरी पड़ताल के साथ पेश आते हैं।
पाठकीय सुरुचि का अलहदा मुहावरा रचनेवाली नामचीन कथा विदूषी मधु कांकरिया का संस्मरण एक भीगे मन की भावभीनी अभिव्यक्ति है। भारतीय भाषा परिषद् कोलकाता के दफ्तर में कालिया जी और तत्क्षण ममता कालिया जी से पहली मुलाकात में हतोत्साह-उत्साह की उपज वाकई बेहद दिलचस्प है। फिर शब्द-शब्द पारिवारिक सदस्य की हैसियत और संवादों का वैचारिक उत्सव....। मधु जी लिखती हैं- 'यही जिगरा था रवीन्द्र जी का कि जिगर की भयानक बीमारी के दौरान भी वे न टूटे न बिखरे, वरन बीमारी का भी रचनात्मक उपयोग किया और अपने अद्वितीय संस्मरणों से हिंदी साहित्य को समृद्ध कर गए। हर कलम की आंखें अपने समय को अपने ढंग से देखती है और अपने समय के बड़े सवालों से टकराती हैं।'
शायद ऐसी कोई मुलाकात हो जहां, पोर-पोर कृतज्ञता से भरे हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा कवि, पत्रकार और समीक्षक प्रांजल धर कालिया जी का सादर उल्लेख न करते हों। निश्चित ही कालिया जी ने न केवल कवि प्रांजल के दीगर लेखकीय आयामों की शिनाख्त की थी बल्कि वो एक आत्मीय आदेश ही था जिसकी वजह से प्रांजल को एक भरापूरा और सर्वस्वीकृत मुकाम हासिल हुआ। प्रांजल अपने संस्मरण के अंत में भावुक होकर लिखते हैं- 'हमारे कालिया जी हमें छोड़कर ही नहीं जा सकते, कम से कम मुझे तो पक्का विश्वास है, बल्कि वे जो छोड़कर गए हैं, उन्हीं तमाम बेहद मूल्यवान तिनकों को जीवन के तमाम अभाव भरे संघर्षों में बटोरता रहता हूं।'
यह अंक कुल जमा छोटे-बड़े दस हिस्सों में है। "मूल्यांकन" में संजीव कुमार, मनोज कुमार पांडेय, हिमांशु पंड्या, नीरज खरे, राकेश मिश्रा, ज्योति चावला और मृत्युंजय पाण्डेय ने कालिया जी के कृतित्व की गहरी और सार्थक पड़ताल की है। साथ ही विषयवस्तु के इर्दगिर्द कुछ जरूरी सूत्र भी पाठकों को दिए हैं। वहीं "पत्रसंवाद" रोचकता और गंभीरता का मर्मस्पर्शी तानाबाना सहेजे हुए है।
कालिया जी की बहुचर्चित और सर्वाधिक मूल्यांकित 'खुदा सही सलामत है' पर सुप्रतिष्ठित युवा आलोचक अरुण होता का लेख- मंदिर में चांद चमकता, मस्जिद में मुरली की तान' सचमुच बहुत आत्मीय और सुचिंतित मीमांसा है। इसी कड़ी में अमिताभ राय, प्रियम अंकित, विजय शर्मा और संजय राय की कसौटियां भी काफी विचारपरक बन पड़ी हैं। "संस्मरण: गालिब छूटी शराब" में राहुल सिंह लिखते हैं- 'लेखक जो निवेदित या संप्रेषित करना चाहता है, वह असल बात होती है कि वह उसके जरिये अपनी कौन सी छवि हम तक सम्प्रेषित करना चाहता है। इस मामले में ‘गालिब छूटी शराब' का गद्य एक निष्पाप गद्य है। रवीन्द्र कालिया इसके जरिए कुछ भी ऐसा विलक्षण प्रस्तावित नहीं करते हैं जो उनके व्यक्तित्व से मेल नहीं खाता हो। यह दरअसल उनके व्यक्तित्व के गठन की दास्तां है।'
राहुल जी के अलावा रेणु व्यास और अमिय बिंदु के दृष्टि संपन्न लेख भी पठनीय हैं। ‘ए.बी.सी.डी.’ और ‘17 रानडे रोड’ के मूल्यांकन में अवधेश मिश्र, अवनिश मिश्र, वेंकटेश कुमार, श्वेतांशु शेखर, तरसेम गुजराल, शंभुनाथ मिश्र और रत्नेश विष्वक्सेन के आलेख इन दोनों कृतियों की परतों को अपने-अपने तईं पूरे मनोयोग एवं चिंतन के साथ खोलते हैं।
प्रिय कथाकार पंकज मित्र की कोलकाता कथाकुंभ रपट बेहद विचारपरक है। और अंत में विशेषांक संपादक राजीव कुमार की 'अपनी बात' में यह बात अवश्य उल्लेखनीय है कि- 'जड़ता का प्रतिरोध और आधुनिक भाव-बोध का समर्थन रवीन्द्र कालिया की रचनात्मकता का एक केंद्रीय तत्व है। आधुनिकता के आवरण में भी जहां कहीं उन्हें छद्म, संकीर्णता अथवा रूढ़िबद्धता दिखाई देती है, वे प्रतिरोध करते हैं।'
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined