बक़ौल राष्ट्रवादी सिने तारिका कंगना रनौत हिंदुस्तान 2014 में या उसके बाद आज़ाद हुआ। अगर उनकी बात मान ली जाये तब इस आज़ादी की पूर्व पीठिका 2011 से शुरू हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में देखी जानी चाहिए। ठीक उसी तरह जिस तरह हमें अब तक बतलाया गया कि हिंदुस्तान 15 अगस्त 1947 को औपनिवेशिक दासता से आज़ाद हुआ था और जिसके पीछे डेढ़ सौ साल चले स्वतन्त्रता संग्राम की पूर्वपीठिका थी। इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए अब हमें भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जिसे अन्ना आंदोलन के नाम से भी आज की पीढ़ी जानती है, उसे राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन का आधिकारिक दर्जा दे देना चाहिए।
आज़ादी के आंदोलन से मिली आज़ादी के बाद आज़ादी के आंदोलन में शामिल अलग-अलग विचारधाराएं बाद में लोकतन्त्र में विपक्षी दल बन गए। उसी प्रकार अन्ना आंदोलन के दौरान साथ आए कई चेहरे मोहरे भी अब एक-दूसरे के लिए विपक्ष बनने की कोशिश करते दिखलाई दे रहे हैं। इतिहास की किताबों में पढ़ाये गए आज़ादी के आंदोलन का मकसद ब्रिटिश राज को खत्म करना था तो इतिहास के इस पुनर्लेखन के जरिये हमें बतलाया जा रहा है कि अन्ना आंदोलन का तात्कालिक मकसद भले ही कांग्रेस के भ्रष्टाचार से देश को मुक्ति दिलाना हो लेकिन इसका दीर्घकालीन मकसद अंतत: देश को कांग्रेस मुक्त करना था।
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पहला आंदोलन अपने मकसद में पूरी तरह कामयाब रहा लेकिन दूसरे आंदोलन के पूरी तरह सफल होने में थोड़ी कसर बाकी है। इसलिए पहला आंदोलन अपनी विजय के बाद देश निर्माण में लग गया और दूसरा आंदोलन अभी भी अपने एकमात्र ध्येय की प्राप्ति की दिशा में सतत चल रहा है। जब तक देश कांग्रेस मुक्त नहीं हो जाता इसके पुनर्निर्माण की कोशिशें केवल नारों और भाषणों में ही मिलती मिलेंगीं। धरातल पर उनका माकूल असर देखने के लिए अभी देश की अवाम को इस आंदोलन के सेनानियों का साथ देना होगा।
भारत के चुनाव आयोग के समक्ष कांग्रेस भले ही एक राजनैतिक दल के रूप में पंजीकृत हो लेकिन नए नए गढ़े गए राजनैतिक आख्यानों में वह ब्रिटिश सत्ता के समतुल्य है जिसे समूल उखाड़ने के बाद ही एक अलग तरह की भारतीयता से ओत-प्रोत देश निर्माण के पहलुओं पर ठोस काम किया जा सकेगा। कांग्रेस ने आजादी से लेकर अब तक इतना कुछ किया है कि कांग्रेस के मिट जाने के बाद भी उस किए हुए को मिटाने में काफी वक़्त लगेगा और जब तक सब कुछ पुराना मिट नहीं जाता, नया रचने का इंतज़ार करना होगा।
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भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की समीक्षा हमेशा होती रही है। आज तो इसमें ऐसे-ऐसे आयाम जोड़े जा रहे हैं और ऐसी-ऐसी जानकारियों का हर रोज़ उद्घाटन हो रहा है जिन्हें सार्वजनिक किए जाने से पहले यह अस्वीकरण देना अनिवार्य जैसा हो गया है कि ‘जो जानकारियां और रहस्य यहां बतलाए जा रहे हैं वो आपको किसी इतिहास की किताब में नहीं मिलेंगे’। अगर आप वजह जानना चाहते हैं तो यही बतलायी जाएगी कि इतिहास पर वामपंथियों का कब्जा बना हुआ था। इस लचीले से तर्क में गोया यह बात शामिल नहीं है कि अगर ऐसा कुछ हुआ होता तो किसी गैर वामपंथी इतिहासकार ने कहीं तो दर्ज किया होता। लेकिन यह दौर अब रहस्योद्घाटन का दौर है। इतिहास रहस्यों का खज़ाना है जिसकी कन्दराओं से नित नूतन रहस्य खोजे जा रहे हैं।
चूंकि 2011 को बीते अभी बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ है। सूचना की क्षण-भंगुरता भी देश के नागरिकों के दिमागों और स्मृतियों में होना भी कतई नयी परिघटना नहीं है। इंसान अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में इतना उलझा हुआ है कि वो सब कुछ याद नहीं रख सकता और न ही शायद रखना चाहता है। लेकिन सूचनाओं की उपलब्ध्तता तो है। उपलब्ध सूचनाएं सभी के लिए हैं और सभी अपनी रुचि और रुझानों के हिसाब से इनका इस्तेमाल करने लिए भी स्वतंत्र हैं।लेखक और पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव ने इस काम को बेहद आसान बना दिया है अपनी हाल ही में अनुज्ञा बुक्स से प्रकाशित किताब- ‘आम आदमी के नाम पर’ के जरिये।
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हालांकि यह कतई ज़रूरी नहीं है कि अन्ना आंदोलन की किंचित भी तुलना भारत के स्वतन्त्रता आंदोलन से की जानी चाहिए लेकिन इस आंदोलन की भी हमारी समकालीन राजनीति में एक भूमिका रही है बल्कि हम जिस मौजूदा दौर में जी रहे हैं उसके निर्माण में इसी आंदोलन की सबसे बड़ी भूमिका है। इस आंदोलन ने दो ठोस उत्पाद भारतीय राजनीति को दिये हैं। कांग्रेस के कथित भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए देश को नरेंद्र मोदी के रूप में एक मसीहा मिला तो दूसरी तरफ पढे-लिक्खों की राजनीति करने के लिए आईआईटी से पढ़ा एक व्यक्ति अरविंद केंजरीवाल भी मिला। आज ये ठोस उत्पाद हिंदुस्तान की समस्त राजनीति के केंद्र में हैं।
अभिषेक ने इस किताब में उस पतली सी खाई की शिनाख्त कर ली है जो आक्रामक ढंग से गढ़े गए इन दो पहाड़ सरीके महाकाय व्यक्तित्वों को आपस में जोड़ती है। पंक्तियों के कवि गीत चतुर्वेदी ने अपनी एक कविता में एक पंक्ति बल्कि एक पंक्ति की कविता में कहा है कि ‘दो पहाड़ों को केवल एक पल नहीं/खाई भी जोड़ती है’। अभिषेक ने इसी खाई को प्रामाणिकता के साथ इस किताब में ढूंढ निकाला है।
यह किताब हालांकि समय से काफी विलंब से हमारे हाथों तक पहुंच पायी है। अभिषेक खुद यह कहते हैं कि ‘इसका प्रकाशन काफी पहले हो जाना था लेकिन यह तब प्रकाशित हो सकी जब सूरज सर पर आ गया’। यहां सूरज के सर पर आ जाने का अभिधा में मतलब यह भी है कि सूरज धरती पर छा गया। यहां धरती और सूरज भी अभिधा में ही ग्रहण लिए जाएं तो धरती का मतलब है हिंदुस्तान की राजनीति और सूरज का मतलब है अरविंद केजरीवाल।
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आज अरविंद केजरीवाल पंजाब का चुनाव आक्रामक ढंग से जीत चुके हैं। इससे पहले वो दिल्ली में बीजेपी को यानी मोदी को हरा चुके हैं। इन दो बड़ी उपलब्धियों और उससे प्राप्त हुई लोकप्रियता के रथ पर सवार ‘कांग्रेस मुक्त भारत के साझा सपने को लेकर बेहद तीव्र गति से आगे बढ़ रहे हैं’। आने वाले समय में हिमाचल प्रदेश, गुजरात और छत्तीसगढ़ उनके निशाने पर हैं। बहुत संभव है कि ये तीन राज्य इस सूरज के ताप को और भी प्रखर ही करें।
मौजूदा राजनीति के दो उत्पाद समानान्तर रूप से चलते हुए समूचे भारतवर्ष को फतह करने निकल पड़े हैं। एक उत्पाद, सौ सालों के अथक प्रयासों से पाली पोसी गयी एक खास विचारधारा से पैदा हुआ है तो दूसरा उत्पाद अभी तक बिना विचारधारा और इतिहास में किए गए किसी निवेश के ही लोकतन्त्र के बाज़ार में धूम मचा रहा है।
पहला उत्पाद यानी भारतीय जनता पार्टी जहां धरम-ध्वजा और दल की ध्वजा को एकमेव करते हुए पूरे देश को एक रंग में रंगे जाने की कोशिशों को जनांदोलन का स्वरूप दे चुका है तो दूसरी तरफ समानान्तर रूप से इस चतुर्दिक विजय अभियान को रोकने का दम भरता दूसरा उत्पाद उसी भाषा और उसी मुहावरे में बाज़ार को अपनी तरफ आकर्षित कर रहा है।
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अभिषेक श्रीवास्तव इन दो पहलुओं पर वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता के हवाले अपनी किताब में एक पंक्ति में लिखते हैं कि “क्या आपको नहीं लगता कि मोदी और केजरीवाल दोनों ही अन्ना आंदोलन की उपज हैं”। गोकि मोदी लंबे समय से राजनीति कर रहे हैं। तीन बार गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके हैं लेकिन देशव्यापी स्वीकृति उन्हें अन्ना आंदोलन के बाद ही नसीब हुई। इस उपज को ज़रा उत्पाद कहकर देखें मौजूदा राजनीति के कई सिरे आसानी से पकड़ में आएंगे।
अभिषेक श्रीवास्तव ने आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल के भारतीय राजनीति में आकस्मिक उभार और उसके पीछे के समूचे ‘ईको सिस्टम’ को बहुत करीने से पकड़ा है। केजरीवाल का उदय भारतीय राजनीति में चमन में दीदवार पैदा होने की परिघटना नहीं है जो हजारों साल नर्गिस के खुद के बेनूरी पर रोने से उत्पन्न होती है बल्कि समूचे तंत्र ने मिलकर एक वृहत निर्वात रचा और उसके लिए एक मुगालती आंदोलन को जरिया बनाया। जब निर्वात पैदा हो गया तब ‘मोदी फॉर पीएम एंड केजरीवाल फॉर सीएम’ का नारा हवा में उछल गया।
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इस उत्पादित निर्वात ने देश के तमाम आलिम फाजिल जमात के दिमागों में भी निर्वात पैदा कर दिया। यूं तो निर्वात एक खाली जगह का नाम है लेकिन बाज़ार की तमाम शक्तियों और राजनीति की तमाम बिसातों ने इस खाली जगह का विस्तार इस आक्रामकता से किया कि जब तक लोग समझ या समझा पाते तब तक 2013 में अरविंद केजरीवाल अपनी नीले रंग की पुरानी वैगन आर से रामलीला मैदान में मुख्यमंत्री की शपथ लेने खड़े हो गए थे और शपथ से पहले ‘इंसान का इंसान से हो भाईचारा गा रहे थे’।
हालांकि यह पूरी जीत नहीं थी क्योंकि यह दुश्मन (कांग्रेस) से ली हुई उधार की बैसाखियों पर सवार थी। जल्द ही यह सरकार गिर गयी। लेकिन केजरीवाल ने यह साबित कर दिया और देश की चौबीस घटे वाली मीडिया के अथक प्रयासों से यह मनवा लिया कि वो एक लीडरशिप मटेरियल हैं। अभी तक भी अरविंद केजरीवाल इस भ्रम को अपने बलात उभार और लोकप्रियता के परचम के नीचे दबा कर रख सके कि वह दो पहाड़ों को एक खाई के रास्ते जोड़ने का सायास जतन कर रहे हैं।
दिल्ली की सत्ता कभी उत्तर प्रदेश के रास्ते हासिल होती थी। 2014 में भी यह सत्ता उत्तर प्रदेश के जरिये ही हासिल हुई लेकिन इस मार्ग में वाया दिल्ली को भी जोड़कर देखा जाना चाहिए। 2014 में बनारस से चुनाव लड़ने और पूरे चुनाव से कांग्रेस को रिंग से बहार खड़े एक दर्शक में तब्दील करने में बड़ी भूमिका निभाई, जिसका विस्तार से वर्णन इस किताब में अभिषेक ने किया है।
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दो पार्टी सिस्टम या दो-ध्रुवीय राजनीति हिंदुस्तान की राजनैतिक व्यवस्था के इतिहास की मूल धुरी रही है। ऐसे में तीसरे ध्रुव उभरते भी रहे हैं तो भी वो एक राज्य या कुछ राज्यों में ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा सके हैं। अरविंद केजरीवाल ने शुरूआत से ही समूची राजनीति को दो ध्रुवों में बांट देने में व्यापक सफलता पा ली। हालांकि यह कैसे केवल अरविंद केजरीवाल की सफलता नहीं है और कैसे एक पूरा तंत्र इस ईको सिस्टम के निर्माण में प्राणपण से लगा हुआ था इसकी पड़ताल भी अभिषेक ने अपनी किताब में पूरी शिद्दत और पुख्ता प्रमाणों के साथ की है।
जिस मीडिया को लेकर आज देश त्राहिमाम कर रहा है उसके पतन के लंबे सफर में 2011 और उसके बाद के अब तक के बीत चुके सालों ने भी निर्णायक भूमिका निभाई है। अगर निष्पक्षता मीडिया का बीज शब्द है तो इसका खुलकर चीर हरण अन्ना आंदोलन के दौर में हुआ। आज फिर से निष्पक्ष मीडिया का परचम लहराते आज तक और आईबीएन-7 के स्टूडिओ से आशुतोष की नमस्कार की लंबी टेर वाली अदा कब अन्ना आंदोलन का मुखपत्र बन गयी दर्शकों को पता ही नहीं चला। और इस स्वत: मुखपत्र बनने के लिए पेश किए गए आशुतोष कब आम आदमी पार्टी के एक कद्दावर नेता बन गए इसका भी पता तभी चला जब हिंदुस्तान की राजनीति में दो ध्रुव विशालकाय होकर स्थापित हो गए। अभिषेक ने एंकर से नेता बने आशुतोष के जरिये आम आदमी पार्टी को एक राष्ट्रीय परिघटना के तौर पर देखे जाने की सलाहियतों को बारीकी से पकड़ा है।
इस पकड़ में एक लोकप्रिय पत्रकार के ज्ञान और समझ को भी हास्यास्पद रूप से सामने ला दिया। एक साक्षात्कार का ज़िक्र करते हुए अभिषेक ने लिखा है कि जब उनसे (आशुतोष) किशन पटनायक का ज़िक्र छिड़ा तो उनकी प्रतिक्रिया थी- किशन पटनायक ने किया क्या है? एक पत्रिका ही तो निकालते थे। यह कथन ऐसे बेमानी होता लेकिन यह वही दौर था जब आम आदमी पार्टी में सर्वोच्च सलाहकार के रूप में किशन पटनायक के विशुद्ध शिष्य कहलाए जाने वाले योगेंद्र यादव थे।
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बहरहाल, महज़ कुछ सालों में ही अरविंद केजरीवाल ने विशुद्ध व्यावहारिक राजनीति का रुख लेते हुए और अन्ना आंदोलन के पीछे काम कर रहे धूर दक्षिणपंथी ईको सिस्टम के मुताबिक अपनी राजनीति को सेवा-सुविधा आधारित बना लिया और देश के उन बुनियादी मुद्दों से न केवल मुंह ही मोड़ा बल्कि उन्हें हवा देने के लिए एक ऐसे विपक्ष का रूप भी धारण कर लिया जो पक्ष-विपक्ष के कांग्रेस मुक्त भारत के कतई अलोकतान्त्रिक, लेकिन साझा सपने के अनुकूल हो।
देश में नागरिकता संशोधन कानून हो या कश्मीर से धारा 370 हटाने का मामला हो या कृषि कानूनों को सबसे पहले अपनी मात्र नाम विधानसभा में पारित करना हो अरविंद केजरीवाल ने केवल और केवल बीजेपी और संघ की राजनीति को ही पोषित किया है।
‘गुजरात मॉडल’ की तर्ज़ पर लेकिन उसके बरक्स ‘दिल्ली मॉडल’ पेश करके देश को एक वैकल्पिक लेकिन घनघोर अ-राजनैतिक राष्ट्र-राज्य बनाने की आधारशिला भी रख दी। अभिषेक ने इस मॉडल के पीछे की वैचारिकी को बहुत संजीदगी से अपनी किताब में पकड़ा है।
यह किताब केवल अन्ना आंदोलन या अरविंद केजरीवाल या आम आदमी पार्टी को समझने के लिए नहीं, बल्कि मौजूदा राजनीति और उसके बहुविमीय तंत्र को समझने के लिए ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए। यह किताब आज के मौजूदा राजनैतिक परिदृश्य को चरणबद्ध ढंग से समझने में हमारी मदद करती है।
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पुस्तक: आम आदमी के नाम पर: भ्रष्टाचार विरोध से राष्ट्रवाद तक दस साल का सफरनामा
लेखक: अभिषेक श्रीवास्तव
प्रकाशक: अनुज्ञा बुक्स, शाहदरा, दिल्ली
पृष्ठ: 169
मूल्य: 195 रुपये
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