हिंदुत्व के प्रतीक सावरकर ‘हिंदुत्व’ के अकेले ऐसे गंभीर सिद्धांतवादी थे जिन्होंने ‘सभी राजनीति के हिंदूकरण और सभी हिंदुओं के सैन्यीकरण’ का सपना देखा था और वह इससे खासे व्यथित थे कि प्रशिक्षित कैडर की बड़ी तादाद के बाद भी आरएसएस उस दिशा में अपेक्षित तेजी से नहीं बढ़ रहा। सावरकर अतिउत्साही थे, जबकि आरएसएस नफे-नुकसान और आगे की रणनीति तय करने में बड़ा यथार्थवादी और चतुर रहा है।
शुरुआती समय में ही उसे अहसास था कि किसी भी राजनीतिक विचार को पहले लोगों के दिलो-दिमाग में बैठाया जाना चाहिए, खास तौर पर जीवन के उन आरंभिक वर्षों के दौरान जब उनकी सोच को प्रभाविवत करना आसान हो, इसीलिए उसने छोटे बच्चों को शाखा की ओर आकर्षित करने पर ध्यान केंद्रित किया। बीजेपी समेत अपने तमाम संगठनों के जरिये लोगों की सोच को प्रभावित करने का काम आरएसएस निरंतर और सोची-समझी रणनीति के साथ कर रहा है।
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अपनी स्थापना के बाद से ही आरएसएस बदलती तकनीक के साथ न केवल खुद को बदलता रहा है बल्कि इसका रणनीतिक इस्तेमाल भी करता रहा है। सोशल मीडिया की संभावनाओं को उसने शुरू में ही समझ लिया और फिर इसे भुनाने के लिए पूरी फौज खड़ी कर दी। अमित शाह ने हाल ही में किसी भी बात को (फेक न्यूज समेत) वायरल करने की क्षमता का जिक्र किया था। यह क्षमता अनौपचारिक, व्यक्तिगत संवाद और शादी समारोहों जैसे सामाजिक अवसरों से लेकर अंतिम संस्कार समारोहों का उपयोग करते हुए राजनीतिक संदेश को प्रसारित करने के पुराने तरीके का एक विस्तार भर है।
राजनीतिक संदेश प्रचारित करने के इस तरीके का दृढ़ता से पालन, चतुर राजनीतिक चालों और देसी-विदेशी समर्थकों के दिल खोलकर चंदा देने की बदौलत पहली बार 2014 में बीजेपी की पूर्ण बहमुत वाली सरकार आई। नरेंद्र मोदी ने विनम्रता के साथ स्वीकार किया कि यह ‘ऐतिहासिक क्षण’ समर्पित कार्यकर्ताओं की पांच पीढ़ियों के योगदान के कारण संभव हो सका। यह नहीं भूलना चाहिए कि आज आरएसएस अकेला संगठन है जिसके पास स्पष्ट दृष्टि है कि वह कैसा भारत बनाना चाहता है और उसके पास इसकी स्पष्ट रणनीति, बहुआयामी संगठनात्मक संरचना, अकूत पैसा और प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की सेना है। प्रबुद्ध समाज से लेकरीगांव-गंवइयों में अलग-अलग तरीके से अपने नजरिये को पहुंचाने, खुद को प्रचारित करने की भी उसमें क्षमता है।
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साथ ही उसने सत्ता के करीब आने के एक भी मौके को नहीं छोड़ने की अद्भुत चतुरता दिखाई। संघ परिवार के सभी संगठन ‘हिंदू राष्ट्र’ के लक्ष्य को पाने के लिए बड़े समन्वित तरीके से काम करते हैं। संदेह नहीं कि कोई भी आरएसएस पर अपने अंतिम लक्ष्य और एजेंडे को छिपाने का आरोप नहीं लगा सकता। आरएसएस ने बीजेपी को जरूर कुछ समय के लिए कुछ मुद्दों को हाशिये पर डालने की इजाजत दी, लेकिन इसने भारत के समावेशी और धर्मनिरपेक्ष चरित्र को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने के अपने लक्ष्य से कभी भी मुंह नहीं मोड़ा।
‘बंच ऑफ थॉट्स’ में एम.एस. गोलवलकर ने समावेशी, लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता संग्राम को ब्रिटेन-विरोध तक सीमित करने वाले राष्ट्रवाद को स्पष्टतः खारिज किया है। राष्ट्र के लिए जो ‘वास्तविक खतरे’ हैं, उनकी भी उन्होंने मुस्लिम, ईसाई और कम्युनिस्ट के तौर पर स्पष्ट पहचान की। अपनी राजनीतिक इकाई को पूरी मजबूती के साथ सत्ता में स्थापित करने के बाद आरएसएस बिना वक्त गंवाए ‘सभी राजनीति के हिंदूकरण और सभी हिंदू के सैन्यीकरण’ के हिंदुत्ववादी सपने को हकीकत में बदलने में जुट गया है। बल्कि इसमें वह खासी हड़बड़ी में दिखता है।
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ऐसा क्यों, इसके जवाब की ओर रुख करने से पहले याद करना चाहिए कि 1967 तक बीजेपी का तत्कालीन संस्करण जनसंघ राजनीतिक तौर पर अछूत ही था। यह तो लोहिया के ‘गैर-कांग्रेसवाद’ (कांग्रेस मक्तु भारत का पूर्व संस्करण) का अनूठा सिद्धांत था, जिसने जनसंघ को कई राज्य सरकारों में शामिल होने का मौका दे दिया। फिर 1974-75 में जय प्रकाश नारायण ने आरएसएस को ऐसा प्रमाणपत्र दे दिया, जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की होगीः ‘अगर आरएसएस फासीवादी है तो मैं भी फासीवादी हूं’।
कांग्रेस को सत्ता से हटाने के जुनून ने लगातार आरएसएस को अपने लक्ष्य के करीब पहुंचने में मदद की है। यह दिलचस्प है कि कुछ प्रमुख उदारवादी, जो इन दिनों मोदी सरकार की आलोचना में काफी मुखर हैं, उन्होंने अन्ना हजारे के नेतृत्व में कथित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में अपनी भूमिका का कभी विश्लेषण नहीं किया। इस आंदोलन में शक्तिशाली आरएसएस मशीनरी मददगार रही और इसका उद्देश्य न केवल कांग्रेस को सत्ता से हटाना, बल्कि लोकतांत्रिक शासकीय संस्थाओं को कमजोर करना भी था। इसने ‘अच्छे दिन’ के मसीहा के आगमन का मार्ग प्रशस्त किया। आरएसएस अतीत से सीखने में राजनीतिक रूप से काफी स्मार्ट तेज रहा है। इसने अन्ना आंदोलन के जरिये सत्ता पर अभूतपूर्व पकड़ हासिल कर ली, जबकि आंदोलन के पीछे रहे तमाम उदारवादी उनकी तुलना में आधे ही होशियार निकले।
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अब उस सवाल पर आते हैं कि आरएसएस हड़बड़ी में क्यों है? आरएसएस एक सांस्कृतिक संगठन होने का दावा करता है, लेकिन उसकी ‘संस्कृति’ तो मृदु भाषा के जरिये उन कल्पनाओं को साकार करने की है जो मन की प्रतिगामी संकीर्णता और जीवन जीने के तरीकों के लिए निरंकुश स्वभाव को अभिन्न रूप से स्वीकार करती है। इसी कारण वह सवाल खड़े करने वाली हर रचनात्मकता से घृणा करता है। यह ऐसे ही नहीं है कि अपने अस्तित्व के लगभग सौ वर्षों में, आरएसएस कभी रचनात्मक समुदाय को आकर्षित नहीं कर सका। यही कारण है कि इसके सदस्य और समर्थक बौद्धिक समुदाय के लिए विषाक्त घृणाभाव रखते हैं।
विडंबना यह है कि आरएसएस जिस भारतीय संस्कृति और हिंदू परंपरा के लिए लड़ने का दावा करता है, उसकी दृष्टि उसी के खिलाफ है। आरएसएस ऊपर से थोपे जाने वाली एकता को लेकर आसक्त है, उसकी सांगठनिक प्रकृति एक के अनुसरण की है जबकि हिंदू धर्म और परंपरा बहुलतावादी है। विविधताओं और विभिन्न धार्मिक परंपराओं (इस्लाम और ईसाईयत जैसी बाहरी परंपराओं समेत) को समेटे बिना भारतीय संस्कृति की कल्पना की जा सकती है क्या? उत्तर भारत के अपने किसी आरएसएस से जुड़े दोस्त या रिश्तेदार से पूछिएः हलवा, जलेबी और समोसा के बिना जीवन कैसा होता- भारत में ये सभी तुर्क लेकर आए। ‘बाबा’ शब्द भी तुर्की भाषा से आया। इस तरह की तमाम चीजों ने अपनी पहचान को पूर्णतया खोए बिना भारतीय जीवन शैली को समृद्ध किया है।
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आरएसएस लगातार इतिहास, स्मृति और रोजमर्रा की सांस्कृतिक जीवन-शैली को बदशक्ल करने, लोकतांत्रिक संस्थाओं का नाश करने और अपने आलोचकों और विरोधियों में खौफ पैदा करने की रणनीति पर चल रहा है। पिछले चुनाव से भी बेहतर बहमुत के साथ सत्ता में आई बीजेपी हिंदू राष्ट्र के लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ रही है। सीएए उसी दिशा में उठाया गया अहम कदम है। भारतीय नागरिकता के निर्धारण के लिए धर्म को निर्णायक बनाना समावेशी और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद के अंत की शुरुआत है। लेकिन संघ-बीजेपी के लिए सीएए का यह समय अनुपयुक्त साबित हो रहा है। लोग अभी ‘नोटबंदी’ और जीएसटी जैसे ‘बड़े’ फैसलों की तपिश से उबरे भी नहीं थे कि सीएए थोप दिया गया।
दिल्ली के शाहीन बाग के रचनात्मक और अनुशासित विरोध-प्रदर्शन की अगुवाई मुख्यतः महिलाएं कर रही हैं। शाहीन बाग सीएए विरोध का प्रतीक बन गया है और लोग देशभर में इसकी नकल कर रहे हैं, जिस कारण संघ-बीजेपी रक्षात्मक हो गए हैं। कभी इधर, कभी उधर गुलाटी मारने वाली नीतीश कुमार की अंतरात्मा की आवाज पार्टी उपाध्यक्ष की जुबान से बाहर आ रही है और सहयोगी शिरोमणि अकाली दल के दूरी बना लेने से बीजेपी चिंतित है। शिवसेना धर्म और राजनीति के घालमेल की गलती पहले ही स्वीकार चुकी है।
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लेकिन आप धोखे में न रहें। सीएए रहे या न रहे, बड़ी संख्या में लोगों के दिलो-दिमाग में राजनीतिक हिंदुत्व घर कर चुका है। कांग्रेस समेत अन्य राजनीतिक दलों से लेकर सिविल सोसाइटी कार्यकर्ताओं और उदारवादियों के लिए यह वक्त गंभीर आत्मचिंतन का है। आपने तो मानविकी को यूनिवर्सिटी व्यवस्था में उपेक्षित छोड़ रखा है, ऐसे में इतिहास के साथ हो रही छेड़छाड़ से भला कैसे निपटेंगे? साहित्य का तो और भी बुरा हाल है। औपचारिक यूनिवर्सिटी का ऐसा हाल और फिर सर्वव्यापी वाट्सएप यूनिवर्सिटी के इस दौर में समाज में करुणा और संवेदनशीलता की भावना के फलने-फूलने की अपेक्षा करना बेमानी ही है।
मौजूदा दौर में यह भी गौर करना उचित होगा कि 2004-14 के दौरान केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कितने कुलपति मानविकी पृष्ठभूमि के रहे? आखिर ज्ञान के तमाम क्षेत्रों में नेतृत्व की भूमिका टेक्नोक्रेट के लिए ही वस्तुतः आरक्षित क्यों हो? उच्च शिक्षा के निजीकरण का आखिर ये दौर क्यों? सोचने वाली बात यह भी है कि आप जिम्मेदार नागरिक के निर्माण की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं जब शिक्षा स्किल डेवलपमेंट का पर्यायवाची हो जाए।
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सबसे अहम बात यह कि बीजेपी को भारतीय राष्ट्रवाद के विचार पर कब्जा करने क्यों दिया गया? वह तो कांग्रेस थी जिसने देशभक्ति की भावना के तात्कालिक उफान को अभिव्यक्ति दी और जैसा दादा धर्माधिकारी कहते हैं, उपनिवेश विरोधी भावनाओं को लोकतांत्रिक समावेशी राष्ट्रवाद-मानवनिष्ठ भारतीयता- में एकाकार किया। राष्ट्रवाद के विभिन्न आयामों पर बौद्धिक चर्चाएं तो होती रहेंगी, लेकिन रोजमर्रा की सियासत में राष्ट्रभाव की ताकत को नजरअंदाज नहीं कर सकते, जिसे महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और मौलाना आजाद जैसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दूरदर्शी नेता बखूबी समझते थे।
स्पष्ट कहूं तो हमारा समाज खतरनाक तरीके से हिंदू राष्ट्र के दुःस्वप्न के करीब आ चुका है। इसकी एक ही काट हो सकती है- मानवनिष्ठ भारतीयता के भाव को आत्मसात करना और हमारी शिक्षा प्रणाली, नीति निर्धारण और सार्वजनिक जीवन में मानविकी को उचित महत्व देना।
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